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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
हे भगवन! आप प्रपञ्चातीत हो करके भी आपके चरणों में जो एकानत प्रपन्न हैं - प्रेमवान भक्त उनके आनन्द वर्धन के लिये आप प्रपञ्च का अनुकरण करके अप्रापन्चिक लीला करते हैं। इसलिये श्रीकृष्ण की लीला में सम्पूर्ण-वैराग्यशक्ति का भी विकास है। यह कहते हैं कि भगवान वृन्दावन में गोप-गोपी के साथ प्रेम सम्बन्ध में आबद्ध और सम्पूर्ण रूप से उसके वशीभूत हो करके भी जब छोड़कर चले गये मथुरा फिर याद किया क्या? तो राग हो तब तो याद किये बिना रहा जाय क्या? इसलिये यह बिल्कुल निर्लिप्त रहे और उधर देखा ही नहीं। द्वारिका-लीला में असंख्य पुत्र-पौत्र, सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ-उनके एक के दस-दस बेटे-हिसाब लगाओं तो लाखों-करोड़ों की संख्या में पहुँच गयी। उन सबको लीला में एक ही दिन मरवा दिया। एक ही दिन मरवा दिया और अपने हँसते रहे। क्या किसी ने आज तक ऐसा किया है? भगवान की सारी लीला में यह बात दीखती है कि कहीं आसक्ति है ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10।14।37
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