रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 39

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


हम उनमें लिप्त नहीं हैं, वे हमारे में हैं। इस प्रकार से ये सबके सब प्रकार से पूर्णरूप से आकर्षक होकर प्रकट और कहीं नहीं हुये। फिर कहते हैं कि भगवान ने पुरुषावतान में प्रकृति का निरीक्षण किया। प्रकृति की ओर देखा और उससे विश्व की सृष्टि हो गयी। यद्यपि प्रकृति के साथ भगवान का सम्बन्ध नहीं है परन्तु कम-से-कम सम्बन्ध निरीक्षण का तो है। प्रकृति को देखा और भूमि का भार-हरण करने के लिये अवतीर्ण भगवान में भू-भार-हरण कार्य के साथ कोई बाध्य-बाध्यता न होने पर भी इसमें जगत की किंचित गन्ध तो थी ही न! परन्तु श्रीकृष्ण के इस स्वरूप में माया और मायिक जगत की कोई गन्ध भी नहीं है। इनका यह प्रपञ्चानुकरण में प्रपञ्चातीत लीला थी। इसको देखकर प्रपंची लोग भले ही प्रंपच मान लें उनमें; परन्तु यह सम्पूर्ण रूप से माया-सम्बन्ध-गन्ध-लेशविहीन हैं।

‘मायासम्बन्धगन्धलेशविहीन ते’ माया के सम्बन्ध के गन्ध का भी लेश नहीं था। इसीलिये ब्रह्मा जी ने कहा-
प्रपञ्चं निष्प्रपञ्चोऽपि विडम्बयासि भूतले।
प्रपन्नजनतानन्दसन्दोहं प्रथितुं प्रभो।।[1]

हे भगवन! आप प्रपञ्चातीत हो करके भी आपके चरणों में जो एकानत प्रपन्न हैं - प्रेमवान भक्त उनके आनन्द वर्धन के लिये आप प्रपञ्च का अनुकरण करके अप्रापन्चिक लीला करते हैं। इसलिये श्रीकृष्ण की लीला में सम्पूर्ण-वैराग्यशक्ति का भी विकास है। यह कहते हैं कि भगवान वृन्दावन में गोप-गोपी के साथ प्रेम सम्बन्ध में आबद्ध और सम्पूर्ण रूप से उसके वशीभूत हो करके भी जब छोड़कर चले गये मथुरा फिर याद किया क्या? तो राग हो तब तो याद किये बिना रहा जाय क्या? इसलिये यह बिल्कुल निर्लिप्त रहे और उधर देखा ही नहीं। द्वारिका-लीला में असंख्य पुत्र-पौत्र, सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ-उनके एक के दस-दस बेटे-हिसाब लगाओं तो लाखों-करोड़ों की संख्या में पहुँच गयी। उन सबको लीला में एक ही दिन मरवा दिया। एक ही दिन मरवा दिया और अपने हँसते रहे। क्या किसी ने आज तक ऐसा किया है? भगवान की सारी लीला में यह बात दीखती है कि कहीं आसक्ति है ही नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।14।37

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