रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 40

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन
(3)

‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ - भगवान ने रमण करने की इच्छा की। सबसे पहले आये ‘भगवान’ शब्द पर अपनी कुछ बातें हो चुकी हैं। शुकदेवजी महाराज ने ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ यह अगर न कहकर ‘श्रीकृष्णोपि रन्तुं मनश्चक्रे’ कहते तो लोग अनायास समझ लेते कि यह श्रीकृष्ण की लीला है। फिर यह अर्थान्तर करने वाले जो लोग हैं वह यह कहते कि श्रीयोगिनी की बात है या अध्यात्म की बात है या और कोई बात है।

तो उन्होंने ‘श्रीकृष्णोपि रन्तुं मनश्चक्रे’ न कहकर ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ यह क्यों कहा? तो कह सकते हैं कि शुकदेवजी को उनके बाद होने वाले इन अध्यात्मिक मनीषियों की कल्पना नहीं आयी होगी कि ये अर्थ करेंगे दूसरा। बड़े लोग दूसरा अर्थ करेंगे यह बात मन में नहीं आयी। दूसरी बात यह - एक शब्दार्थ-गौरव भी होता है; जैसे कोई सूर्य उदय हो रहा है ऐसा न कह करके ‘अयम् उदयति मुद्राभंजनम् पद्मलीलाम्’ - जो यह कमलनियों के मुकुलित भावों को दूर करते हैं वे उदय हुए। तो यह अलंकारिक गुणों के सिद्धान्त से यह शब्दार्थ सौष्ठव है। इसलिये शायद उन्होंने ‘भगवानपि’ कहा होगा। क्योंकि इसमें ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्तियुक्त भगवान का वर्णन है। इसमें एक बात और है - श्रीकृष्ण ने रमण करने की इच्छा की ये बात कहने पर पढ़ने वाले यही जानते कि व्रजराजनन्दन यशोदा के स्तनपान करने वाले श्रीकृष्ण अथवा बहुत कहते तो सर्वाकर्षक परमानन्दघन श्रीकृष्ण, इन्होंने रमण करने की इच्छा की। यही अर्थ ध्यान में आता। ऐश्वर्य वीर्यादि सम्पन्न जो षडविध महाशक्ति वाले भगवान हैं - यह बात ध्यान में नहीं आती। जो श्रीकृष्ण को भगवान मानते हैं उनकी बात थोड़ी दूर अलग छोड़ दें लेकिन जो अज्ञ लोग हैं, बहिर्मुख हैं, निन्दक लोग हैं उनके तो यह भाव ग्रहण में आता ही नहीं कि भगवान ने इच्छा की। कृष्ण ने इच्छा की, क्योंकि यह नरलीला विग्रह स्वरूप जो भगवान का ऐश्वर्य माधुर्यादि सम्पन्न स्वरूप है; यह जो भजन विमूढ़ लोग हैं उनके ध्यान में आना बड़ा कठिन है। इसीलिये शायद गीता में भगवान ने कहा-
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9।11

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