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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चौथा अध्याय
सखियों! यदि तुम मेरी बात जानना चाहती हो तो मैं तो प्रेम करने वाले प्राणियों से भी वैसा प्रेम नहीं करता; उनकी चित्तवृत्ति निरन्तर मुझमें लगी रहे, इसलिये कभी-कभी उनसे उदासीन-सा हो जाता हूँ। जैसे निर्धन मनुष्य को कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर वह खो जाय तो उसके हृदय में खोये हुए धन की चिन्ता छायी रहती है, वह दूसरी वस्तु का स्मरण ही नहीं करता, इसी प्रकार मैं भी मिल-मिलकर छिप जाया करता हूँ, जिससे मेरा चिन्तन नित्य-निरन्तर बना रहे।।20।।
गोपललनाओं! तुम लोगों ने मेरे लिये सारी लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और आत्मीय स्वजनों का भी परित्याग कर दिया। इस स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति मेरे द्वारा प्राप्त होने वाले किसी सुख में लगकर मुझे छोड़ न दे, केवल मुझमें ही लगी रहे, इसीलिये ही मैं तुम लोगों से दृष्टि बचाकर तुम्हारे प्रेम रस का पान करता हुआ ही यहाँ छिप रहा था। मेरी गोपियों! तुम मेरी अत्यन्त प्रिया हो और मैं तुम्हारा परम प्रियतम हूँ, अतः तुम लोग मुझमें दोष मत देखो।।21। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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