रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 216

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

चौथा अध्याय

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न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या मा भजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना।।22।।

प्रियाओ! प्रयत्न करने वाले साधकों से भी जो घर-गृहस्थी की बेड़ियाँ नहीं टूटतीं, तुमने उनको भलीभाँति तोड़कर मुझसे यथार्थ प्रेम किया है। मेरे साथ तुम्हारा यह मिलन सर्वथा निर्दोष-निज सुख के इच्छालेश से भी रहित परम पवित्र है। तुम लोगों ने केवल मुझको सुख देने के लिये ही इतना त्याग किया है। मेरे प्रति किये जाने वाले तुम्हारे इस प्रेम, सेवा और उपकार का बदला मैं देवताओं की लंबी आयु में भी सेवा करके नहीं चुका सकता। तुम अपनी साधुता, सौजन्य से ही चाहो तो मुझे उऋण कर सकती हो। मैं तो तुम्हारा ऋण चुकाने में सर्वथा असमर्थ हूँ।।22।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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