रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 21

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

गोपियाँ व्रज और श्रीकृष्ण के बीच में मूर्तिमान वैराग्य है या मूर्तिमान प्रेम-यह कहा नहीं जा सकता। जगत की दो चीजें-जगत की आसक्ति और जगत का काम-यह दोनों उनमें नहीं रहा। तो अब इनकी साधना क्या है? साधना के दो भेद हैं। एक होती है वैध साधना और एक होती है मर्यादा रहित अवैधी साधना। इन दोनों के अलग-अलग नियम होते हैं। वैध साधन में नियमों के बन्धन का, पद्धति का, कर्तव्यों का, धर्मो का विशेष ख्याल रहता है। इनका त्याग साधना को कष्ट करने वाला होता है। मान हानिकर होता है इसलिये वैध साधना के जो अधिकारी हैं उनका यह काम है कि किसी प्रकार से भी अवैध प्रेम साधना में न पड़े। वह वैध साधना का कलंक है, गिराने वाला है। इसलिये वैध साधना को आदमी छोड़ता नहीं है। लेकिन जब अवैध साधना आती है तो छूट जाता है।

यह जैसे नदी के पार पहुँचा हुआ आदमी नाव को छोड़ दे तो वह डूब जायगा। अवैध साधना का अर्थ है कि भगवान का प्रेम जिसे प्राप्त हो गया, जिसकी सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छा से सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान की ओर ही दौड़ने लगी उसके लिये फिर वैधता रहती नहीं। दूसरी चीज को वृत्ति पकड़ती नहीं, धारण करती नहीं, रखती नहीं इसलिये नियमपूर्वक कौन करे? नियमपूर्वक करने वाला जो संस्कारी रहा वह उस रूप में रहा नहीं तो ‘वेदान् उन्मूलयति’ - वेदों का उन्मूलन हो जाता है उस अवैध साधना में। आगे आयेगा कि मर्यादा के सेतु का भंग हो जाता है। पुल से पार हो गए और पुल टूट गया। मर्यादा-सेतु भंग हो गया।

यह गोपी जो हैं हम साधना के उच्च स्तर पर परम आदर्शरूप में थीं। इसीलिये वे घर-द्वार, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म, भोग-मोक्ष सबको छोड़कर सबका उल्लंघन कर जो परधर्म स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण हैं उनको प्राप्त करने के लिये अभिसार किया। उनका पति-पुत्रों का त्याग धर्म का त्याग नहीं है। यह अवैध साधना के धर्म का पालन है। यहाँ पर ‘स्वधर्म’ है। संन्यासी जैसे सब घरवालों को छोड़ देता है वैराग्य से तो उसके छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि वह कर्तव्य का त्याग करता है। संन्यासी का कर्तव्य ही है सबको छोड़ देना। इसी प्रकार यह स्वधर्मत्याग जो है - गोपियों का है- ‘सर्वत्याग करें’ ‘करें कृष्ण भजन।’ यह गोपियों के लिये कहा है चैतन्य महाप्रभु ने कि सर्वत्याग अर्थात सर्वधर्मत्याग और सर्वधर्मत्याग की आज्ञा भगवान ने दी है - शरणागति में। ‘सर्वधर्मांन् परित्यज्य’ यह भगवान के शब्द हैं औरों के नहीं। वहाँ पर वैध धर्म की आवश्यकता बताने के लिये कहना पड़ता है कि धर्मों के त्याग की बात का अर्थ है कि धर्मों का आश्रय त्याग करो। धर्मत्याग की बात नहीं। परन्तु नाम धर्मत्याग का है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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