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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
गोपियों को मिला भगवान का प्रेमदान इससे गोपियाँ निश्चिन्त हो गयीं। वे घर के काम में लगीं थीं, निश्चिन्त होकर, घर के काम की चिन्ता नहीं। घर का काम गोपियों द्वारा हो रहा है और गोपियाँ निश्चिन्त हैं। यह उसमें लगी हुई थीं। कोई अर्थ में लगी थीं, कोई काम में लगी थीं और कोई मोक्ष साधन में लगी थीं। सब लगी हुई थीं अपने-अपने काम में पर उनमें से किसी पदार्थ की उनको चाह नहीं। किसी पदार्थ में उनकी आसक्ति नहीं। यह उनकी विशेषता थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वंशीध्वनि सुनते ही कर्म की पूर्णता पर उनका ध्यान नहीं गया। वह रोटी बेल रही है और बेलकर तवे पर डालकर सेंककर चलें, कपड़ा पहन रहीं हैं तो पूरा पहनकर फिर चलें, बच्चे को दूध पिला रही हैं तो पूरा पिला दें तब चलें, ऐसा नहीं हुआ; कर्म की पूर्णता पर उनका ध्यान नहीं गया। काम पूरा करके चलने की बात उनके मन में नही आयी। क्यों? क्योंकि वे काम तो कर रहीं थीं। परन्तु उस काम में उनकी आसक्ति नहीं थी। काम की उनको चिन्ता नहीं। काम की पूर्णता उनका उद्देश्य नहीं। वे पदार्थ नहीं चाहती थीं यह उनकी विशेषता। तो वह चल पड़ी। यह बड़ी सुन्दर समझने की चीज है कि एक चलना होता है किसी काम से और एक चलना होता है विषयासक्तशून्य संन्यासी का। बाबा (श्रीराधाबाबा) कहा करते थे कि हमारा जो यह काष्ठ मौन है यह अधूरा है। अपूर्ण है। काष्ठ मौन का वास्तविक स्वरूप होता है कि चल दे। कहाँ चल दें इसका पता नहीं। बस चल दे। गंगा के किनारे-किनारे चल पड़े। न कोई आसक्ति है न चलने का कोई अर्थ है। रास्तें में कहीं कपड़ा गिर पड़ा तो गिर पड़ा और शरीर जहाँ गिर पड़ा नींद के लिये तो नींद आ गयी, गिर पड़ा उठा फिर चल दिये। रास्ते में कोई रोटी सामने दे दी तो खा लिया। इसलिये विषययासक्तिशून्य जैसे संन्यासी चलता है। उसके हृदय में वैराग्य की प्रदीप्त ज्वाला है, उसमें उसका सब भस्म हो गया। इस प्रकार यह गोपियाँ चलीं। इसका वर्णन आगे आयेगा। किसी ने काम नहीं पूरा किया। घरवालों से राय नहीं ली और जो गोपियाँ गयीं वे भी जाने की बात आपस में एक दूसरे से नहीं कही। हम जा रहे हैं साथ चलो, चलना है; नहीं। पूछताछ की, न बात की, न घर में पूछा, न कार्य पूरा किया, जो जैसे थी वह उसी रूप में चल दी। खा रही है और मुँह नहीं धोया तो नहीं धोया। कपड़ा पहन रही है तो, कमर का कपड़ा सिरपर ओढ़ लिया तो ओढ़ लिया। गहना पहन रही हैं उल्टा, हाथ का पैर में पहन लिया तो पहन लिया। इस प्रकार अस्त-व्यस्त गति से जो जैसे थी वह चल पड़ी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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