रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 195

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

दूसरा अध्याय

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ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत्‌।
न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः।।38।।

इस प्रकार अभिमान का आविर्भाव होने पर वह गोपी वन में एक स्थान पर जाकर सौभाग्यमद से मतवाली हो गयी और श्रीकृष्ण से-जो ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं - कहने लगी - ‘अब तो मुझसे चला नहीं जाता। मेरे कोमल चरण थक गये हैं, अतः तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर वहाँ ले चलो’।।38।।

एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति।
ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत।।39।।

अपनी प्रियतमा की गर्व भरी वाणी सुनकर श्री श्यामसुन्दर ने उससे कहा - ‘अच्छा प्रिये! अब तुम मेरे कंधे पर चढ़ जाओ।’ यह सुनकर ज्यों ही वह गोपी कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही भगवान अन्तर्धान हो गये; तब तो उन्हें न देखकर वह गोप-वधू अविरत रोने- कलपने लगी।।39।।

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्कासि क्कासि महाभुज।
दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय संनिधिम्।।40।।

वह कातर कण्ठ से बोली - ‘हा प्राणनाथ! हा रमण! हा प्रियतम! हा महाबाहो! तुम कहाँ हो कहाँ हो? हे मेरे प्राणसखा! मैं तुम्हारी अत्यन्त दीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सांनिध्य का दर्शन कराओ, मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दो।।40।।

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