रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 196

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

दूसरा अध्याय

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अन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्ग गोप्योऽविदूरतः।
ददृशुः प्रियविश्लेषमोहितां दुःखितां सखीम्।।41।।

परीक्षित! इसी बीच भगवान श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के सहारे उनके जाने के मार्ग को ढूँढ़ती हुई गोपियाँ वहाँ आ पहुँचीं और उन्होंने बहुत ही समीप आकर देखा कि उनकी भाग्यवती सखी अपने प्रियतम के वियोग से अत्यन्त दुःखी होकर मूर्च्छित पड़ी है।।41।।

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात्।
अवमानं च दौरात्म्याद् विस्मयं परमं ययुः।।42।।

तब उन्होंने और भी समीप आकर प्रयत्न करके उसको मूर्छा से जगाया। जागने पर प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के विरह में कातर हुई उस गोपसुन्दरी ने भगवान माधव के द्वारा उसे जो प्रेम तथा सम्मान प्राप्त हुआ था, वह सुनाया तथा यह भी बतलाया कि फिर ‘मैंने ही गर्व में भरकर कुटिलतावश उनका अपमान किया, तब वे मुझे छोड़कर अन्तर्धान हो गये।’ इन दोनों विचित्र घटनाओं को सुनकर गोपियों को परम आश्चर्य हुआ।।42।।

ततोऽविशन् वनं चन्द्रज्योत्स्ना यावद् विभाव्यते।
तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः।।43।।

तदनन्तर वन में जहाँ तक चन्द्रमा की किरणें छिटक रही थीं, वहाँ तक तो वे समस्त व्रज गोपियाँ श्यामसुन्दर को ढूँढ़ती हुई चली गयीं; परंतु आगे जब उन्होंने अत्यन्त अन्धकारमय गहन वन देखा, तब यह सोचा कि यदि हम इस अन्धकार में उन्हें ढूँढ़ती हुई चली जायँगी तो वे और भी घने अन्धकारमय वन में जा छिपेंगे और हमें नहीं मिलेंगे, इसलिये वे उधर से वापस चली आयीं।।43।।

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