रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 179

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पहला अध्याय

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उपगीयमान उद्गायन्‌ वनिताशतयूथप:।
माला बिभ्रद्‌ वैजयन्तीं व्यचरन्मण्डयन्‌ वनम्‌।।44।।

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उस समय व्रज गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण, रूप तथा लीला आदि का मधुर स्वर से गान करने लगीं, उधर श्रीकृष्ण भी उच्च स्वर से उनके प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाने लगे। इस प्रकार व्रज सुन्दरियों के सैकड़ों यूथों के नायक श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला धारण किये श्रीवृन्दावन की शोभा बढ़ाते हुए विचरण करने लगे।।44।।

नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्‌।
रेमे तत्‌तरलानन्दकुमुदामोदवायुना।।45।।

तदनन्तर गोपांगनाओं के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना के उस परम रमणीय पुलिन पर पदार्पण किया। वह पुलिन यमुना जी की तरल तरंगों के स्पर्श से शीतल हो रहा था और कुमुदिनी की सुन्दर सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु के द्वारा परिसेवित था। वहाँ बर्फ के समान उज्ज्वल तथा शीतल बालू बिछी हुई थी। इस प्रकार के आनन्दप्रद पुलिन पर भगवान अपनी स्वरूपभूता गोपियों के साथ क्रीड़ा करने लगे।।45।।

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु-
नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातै:।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणा-
मुत्तम्भयन्‌ रतिपतिं रमयांचकार।।46।।

हाथ फैलाकर आलिंगन करना, हाथ, चोटी, जंघा, लँहगे और वक्षःस्थल का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना, मुस्काना-इन सब चेष्टाओं के द्वारा गोपरमणियों के दिव्य कामरस-विशुद्ध प्रेम का उद्दीपन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण क्रीड़ा के द्वारा उन्हें आनन्द देने लगे - अपने दिव्य स्वरूपानन्द का वितरण करके उनको तृप्त करने लगे।।46।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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