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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्र्वरेश्र्वर:। श्री शुकदेव जी बोले - परीक्षित! सनकादि-शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर, नित्य आत्मस्वरूप में रमण करने वाले भगवान ने जब व्रज गोपियों की इस प्रकार मार्मिक व्यथा और व्याकुलता से पूर्ण वाणी को सुना, तब उनका हृदय दया से द्रवित हो गया और शुद्ध मन से हँसकर वे अपने कर-कमलों से उनके आँसू पोंछकर उनके साथ विलास-विहार करने लगे - उन्हें अपना स्वरूपभूत आनन्द देने लगे।।42।। ताभि: समेताभिरुदारचेष्टित: प्रियतम की अत्यन्त समीपता प्राप्त करने से गोप रमणियों का विरह दुःख तथा प्रणय कोप शान्त हो गया और श्रीकृष्ण के दर्शन तथा उनकी प्रेम भरी चितवन के आनन्द से उनका मुख-कमल प्रफुल्लित हो उठा। वे जब हँसते थे, तब उनकी उज्ज्वल दन्त पंक्तियों पर कुन्दपुष्पों- जैसी शोभा छा जाती थीं। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो ताराओं से घिरे हुए पूर्ण चन्द्रमा हों। श्रीकृष्ण इस प्रकार व्रजबालाओं को सुख देकर भी अपने सच्चिदानन्द घर स्वरूप से जरा भी च्युत नहीं हुए थे अर्थात गोप रमणियों के साथ उनका यह क्रीडा-विहार सच्चिदानन्दमयी दिव्यलीला थी।।43।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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