रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 139

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी ने भक्तवांक्षा कल्पतरु भगवान की भक्त पराधीनता का यहाँ संकेत किया है। यह बात ध्यान में रखनी चाहिये। उनकी कोई इच्छा हो सो बात नहीं। श्रीभगवान ने प्रेमवती श्रीगोपांगनाओं के साथ रमण की इच्छा की। किन्तु उनकी इच्छा शक्ति से यह स्वाभाविक काम नहीं हुआ है। यह इच्छा उन्होंने मन के द्वारा की। बिना मन के यूँ ही ईश्वर से जो अपने आप काम हो जाते हैं वो नहीं और यदि कोई कहे कि भई! भगवान तो अमना हैं, अप्राणा हैं-श्रुतियाँ कहती हैं तो यह बात ठीक है परन्तु जो भगवान अपनी शक्ति से अज होकर भी जन्म ग्रहण कर सकते हैं वे भगवान अपने उसी शक्ति से अमना होकर मन के द्वारा इच्छा करें। इसमें उनको कौन रोकता है?

जो भगवान अज होकर जन्म ले सकते हैं; अजन्मा का जन्म होता है तो अमना का मन भी हो सकता है। यह अमना के मन के द्वारा रमण की इच्छा है। इसलिये यह जानना चाहिये कि यह हमारा वाला गन्दा मन वहाँ नहीं था। वहाँ अमना का मन था। भगवान की रमण इच्छा-यह केवल प्रेमवती गोपियों की मन की पूर्ण करने के लिये नहीं थीं। इसमें उनकी अपनी भी आकांक्षा थी। यदि प्रेमवती गोपरमणियों के साथ भगवान की रमण करने की कोई इच्छा न होती, प्रयोजन न होता; यदि रमणेच्छा केवल अभिनय मात्र ही होती तो परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ न कहकर-‘रन्तुं मनश्चकार’ कहते। यह व्याकरण का नियम है कि कर्ता यदि क्रिया का फल भागी है तो वहाँ आत्म ने पद का प्रयोग होता है और कर्ता यदि फलभागी नहीं है तो आत्म ने पद के परिवर्तन में परस्मै पद का प्रयोग होता है जैसे कोई पुरोहित जी महराज यजमान के लिये पूजादि करते हैं और पुरोहित उसके फल भागी नही तो वह संकल्प की क्रिया में परस्मै पद का प्रयोग करते हैं। यदि यजमान स्वयं पूजा करते हों तो संकल्प वाक्य में आत्म ने पद का प्रयोग करेंगे।

भगवान की रास क्रीडारूप इस महायज्ञ में भगवान केवल पुरोहित की भाँति फलाकांक्षा शून्य होकर कर्म करने वाले नहीं हैं। क्योंकि उस महायज्ञ में यजमान की भाँति फलभागी होने का संकल्प करते हैं। इसीलिये परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी ने ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ कहकर रासयज्ञ की इस संकल्प वाक्य में आत्म ने पद का प्रयोग करवाया है। परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी महाराज ने ‘भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ न कहकर ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ क्यों कहा? अपि क्यों लगाया? इसलिये कि इसमें भगवान की रमणेच्छा व्यक्त हुई परन्तु अपि शब्द से जाना जाता है कि भगवान ने रमण की इच्छा की और भगवान के साथ-साथ गोपियों ने भी। गोपियों ने की होती तो अपि की जरूरत नहीं थी और भगवान में इच्छा नहीं होती तो भी अपि की जरूरत नहीं थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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