रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 138

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुव निचाप्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते।।[1]
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्।।[2]

यह उनके निर्विशेष रूप का संकेत है। पर निर्विशेषता, सविशेषता एक साथ रहती है इनमें। यह निर्विशेष रहते हुए भी सविशेष हैं और सविशेष रहते हुए भी निर्विशेष है। यह ‘अशब्द’ ‘अस्पर्श’ होते हुए भी यह सारा शब्द, स्पर्श इन्हीं के द्वारा होता है। इसलिये इनके सम्बन्ध में कोई अमुक धारणा नहीं करनी चाहिये कि ऐसे हैं वैसे नहीं और वैसे ही हैं, ऐसे नहीं। यह बात नहीं। भगवान यहाँ पर भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिये सब प्रकार के भक्तों के मनोनुकूल दिव्य मन-काम का निर्माण करके लीला करना स्वीकार करते हैं। यह उनका स्वभाव है। यह उनके भक्ताधीनता का विरद है, शंका की कोई बात नहीं।

भगवान असीम होकर भी सीमाबद्ध जगत में आते हैं निष्क्रिय होकर भी विविध लीला करते हैं। निर्विकार होकर भी भक्त की रक्षा के लिये व्यग्र हो जाते हैं और अरूप होकर भी जगन्मोहन श्यामसुन्दर आदि रुपों से आविर्भूत होकर सबके मनों को हर लेते हैं और वे अपने नित्य सिद्ध अचिन्त्य महाशक्ति के प्रभाव से ऐसी लीला करते हैं कि जिसको सुनकर, गाकर, देखकर बड़े-बड़े महात्मा, महापुरुष-जिनके मन ही नहीं रहा ऐसे लोग लीला-माधुर्य-सिन्धु में डूब जाने को बाध्य होते हैं। यह लीला-माधुर्य है। श्रीभगवान की महिमा पर विचार करने से यह पता लगता है कि उनको मन के द्वारा इच्छा नहीं करनी पड़ती और वे किसी व्यक्ति विशेष या वस्तु-विशेष के लिये इच्छा करें इसकी भी उन्हें आवश्यकता नहीं होती परन्तु रासलीला में प्रवृत्त भगवान मन के द्वारा प्रेमवती श्रीगोपांगनाओं के साथ रमण करने की इच्छा करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कठोपनिषद 3।1।15
  2. श्वेताश्वतरोपनिषद 3।19

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