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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
पावस-विहार-लीलापद (राग-गौड़ सारंग, ताल-झूमरा)
अर्थ- हे सखी! आज प्रिया प्रीतम की कैसी अद्भुत सोभा बनी है। मानों कोऊ रस-समूह सोभायुक्त नीले मेघ की रस-सार छबीली पूतरी या श्रीबन में क्रीड़ा करि रही होय। प्रीतम ने पाग, मुकुट, लर, कडूला, बाजू कौस्तुभमनि, नच्छत्रमाला, किंकिनी, कुंडल, निरमोला, बेसर, चिबुक, मयूराकृत कुंडल, मोतिन के झौंरा, कंठसरी, गुंजा, बनमाला, बघना, नूपुर, मुद्रिका आदि अनेक प्रकार के आभूषन धारन किये हैं. और इत कूँ प्यारी नें रत्न-जटित चंद्रिका, बंदनी, खुटिला, सीसफूल, लरी, तरकी, नथ, झूमकी, हँसुलिया, बिजाँयठे, अंगद, बलय, पहुँची, मुद्रिका, बाजू, चूरी, हार, हमेल, दुलरी, चिबुक, नौगरी, बरा, छुद्रघंटिका, जेहर, तेहर, साँठ, नूपुर, अनवट, बिछिया आदि अनेक प्रकार के आभूषन धराये हैं। और जब दौनौं चलैं हैं, तब अपनी परछाँहीं कूँ देखि कैं कैसे प्रसन्न होयँ हैं। और सबन के मन कूँ बरबस अपनी ओर आकर्षित करि लेयँ हैं। और हम गोपीजनन के चातकरूप नेत्रन कूँ मधुर हास सौं अनेक लीलान द्वारा रस-बरषा करि सुख देते रहैं हैं। और जैसैं मेघ बीजुरी कूँ अपने अंक में छिपाय राखै है, तैसैं ही प्रीतम अपनी प्रिया के गरे में बाँह डारें या बन में क्रीड़ा करि रहे हैं। सखी! आज की सोभा तौ अद्भुत ही बनी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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