मीराँबाई की पदावली पृ. 53

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई व गोदा

मीराँबाई के साथ सबसे अधिक समानता रखने वाली कवयित्रियों में तामिल प्रान्त की आलवार भक्तिन गोदा का नाम भी लिया जाता है जो उनसे लगभग साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व सुदूर मदुरा जिले के 'विल्लिपुत्तूर' ग्राम निवासी पेरी वा विष्णुचित्त आलवार को, स्थानीय वटपत्रशायी भगवान की पूजा के लिए पुष्प चयन करते समय, किसी तुलसी वृक्ष के निकट एक अलौकिक बालिका के रूप में, सर्वप्रथम प्राप्त हुई थी और जिसका नाम भी, इसी कारण, पहले पहल 'कोदई' अर्थात सुमनों की माला की भाँति कमनीय रक्खा गया था। बड़ी होने पर 'कोदई' भगवान के निमित्त गुंथी गई मालाओं को कभी-कभी स्वयं अपने गले में भी चुपके-चुपके डालने लगी जिससे अप्रसन्न होकर विष्णुचित्त को उसे ऐसा करने से, डांट कर, मना करना पड़ा, किंतु पीछे जब उन्हें जान पड़ा कि भगवान को उसकी पहनी हुई मालाएं ही अधिक पसंद हैं तो उन्होंने इस अनुमति प्रदान कर दी। 'कोदई' के कोमल हृदय पर इस घटना के एक बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा, उसमें भगवान के प्रति अलौकिक प्रेम का संचार हो आया और वह तबसे, उत्तरोत्तर, अपने को श्रीकृष्ण मिलन की भूखी किसी गोपी का अवतार तक समझने लगी।

अंत में विवाह योग्य होने पर, कहा जाता है कि उसने अपने गुरुजनों से स्पष्ट बतला दिया कि मैं, श्री रंगनाथ को छोड़कर, दूसरे किसी को भी वरण नहीं कर सकती और, स्वप्न द्वारा इसका समर्थन भी हो जाने पर, विष्णुचित्त उसे श्रीरंगम् ले जाकर, वैवाहिक विधियों के साथ, भगवान को समर्पित कर आए, जहाँ पर, मूर्ति के निकट पहुँचकर, उससे मिलते ही वह सबके सामने, यकायक अंतर्ध्यान हो गई। तभी से तामिल प्रांत में उसकी पूजा देवताओं की भाँति, होती है और वह आंडाल अर्थात शासन करने वाली या स्वामिनी नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है। उसके तीसरे नाम 'गोदा' का अर्थ अपनी वाणी को श्रीभगवान के प्रति समर्पित करने वाली' बतलाया जाता है। गोदा की भक्ति भी, मीरांबाई की ही भाँति, पूर्ण गोपीभाव से ओतप्रोत थी और उस परमभाव के आवेश में, उसने भी ठीक मीराँ की ही भाँति, अपने तद्विषयक अनुभवों को अपनी तामिल रचनाओं द्वारा प्रकट किया था। वह श्रीकृष्ण में इतनी तन्मय हो गई कि अपने गांव बिल्लिपुत्तूर को ही गोकुल[1], वहाँ की लड़कियों को गोपियाँ और भगवान के मन्दिर को नन्द का घर और मन्दिर में विराजमान भगवान को ही श्रीकृष्ण समझ कर अत्युत्कट भावना से, गोपियों का अनुसरण करती रही।[2]उसकी कृतियों में से दो अर्थात 'तिरुथावै' अथवा 'श्रीव्रत' एवं 'नाच्चियार तिरमोली' अथवा 'गोदा की श्री सुक्तियाँ' अभी तक उपलब्ध हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रज
  2. का. श्री. निवासाचार्य : आलवार कवयित्री गोदा, (कल्याण, जनवरी, सन 1941 ई. पृ. 1172 )।

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