मीराँबाई की पदावली पृ. 1

मीराँबाई की पदावली

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विषय प्रवेश

मीराँबाई राजस्थान प्रान्त की एक राजपूत महिला थीं और उनकी कर्मभूमि, कदाचित अधिक से अधिक, वहाँ से पूर्व की ओर ब्रजमंडल एवं पश्चिम दिशा में श्रीद्वारकाधाम तक ही सीमित रही। राजस्थान प्रदेश बहुत कुछ मरुस्थल होकर वा निर्जन कहलाकर भी, सदा वीर जातियों का निवास-स्थान रहा है और उसका प्रायः प्रत्येक अंश, उनके, विदेशियों के साथ अथवा आपस की ही, लड़ाइयों में निरन्तर प्रवृत रहते आने से, युद्धस्थल भी बन जाता रहा है। परन्तु संग्रामों के कारण शौर्य-प्रिय होने पर भी, उनके हृदयों में प्रेम व शान्ति जैसे, मानवों चित भावों की भी कमी कभी नहीं रही। तदनुसार साहित्य व संगीतादि कलाओं के साथ भी उनका प्रेम सदा बना रहता आया, और वहाँ के स्थानीय या आस-पास वाले पवित्र धामों व परम्पराओं द्वारा प्रभावित होकर, उनके विचार बहुधा धार्मिक भावनाओं से भी ओतप्रोत हो जाते रहे। हिन्दी साहित्य के इतिहास के आदिकाल में कुछ इन जैसी बातों के ही कारण, हमें जागृति के जितने उदाहरण उक्त प्रदेश के भीतर मिलते हैं उतने और कहीं उपलब्ध नहीं होते। प्राचीन राजस्थानी व हिन्दी के रूप में परिगत होती हुई अपभ्रंश के धर्म नीति व प्रेम सम्बन्धी फुटकल ‘दूहों’ व घटनात्मक बातों के अनेक नमूने, सर्वप्रथम, हमें उक्त सीमा ही के भीतर दृष्टिगोचर होते हैं और यहीं पर आगे चलकर, हमें वे 'रसायण' व 'रासों' नामक रचनायें भी मिलती हैं जिनमें वीर गाथाओं के साथ साथ प्रेम व श्रृंगार के ललित भाव भरे पड़े हैं। इसके सिवाय, जिस प्रकार विहारादि प्रान्तों के प्राचीन हिन्दी कवि बौद्ध सिद्धों की 'चर्या गीतियाँ' इधर, पूर्व की ओर, मिलती हैं प्रायः उसी प्रकार, हमें पुराने जैन-सूरियों द्वारा रचित साम्प्रदायिक साहित्य के अनेक प्रमाण बराबर, वहाँ पर भी मिलते जा रहे हैं।

राजस्थान में जिस समय मीराँबाई का आविर्भाव हुआ उस समय आध्यात्मिक साधना के अन्तर्गत, उत्तरी भारत में प्रायः सब कहीं, मुख्यतः तीन प्रकार की विचार धारायें प्रबल वेग के साथ प्रवाहित हो रही थीं। उनमें से पहली अर्थात ज्ञानयोग की धारा का चरम लक्ष्य, मनः शुद्धि अथवा चित्तवृत्तियों के निरोध द्वारा परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर, उसके साथ, अद्वेतभाव का अनुभव करना था और दूसरी अर्थात प्रेमानुबंधु की धारा का अन्तिम ध्येय, परमात्मा के साथ नैसगिंक आत्मीयता का भाव हृदयंगम कर, उससे तादात्म्य लाभ करना था, तथा तीसरी अर्थात भक्तिभाव की धारा का एकमात्र उद्देश्य, उसी प्रकार, उसके प्रति पूर्ण श्रद्धा के भाव जागृत कर उसके साथ शाश्वत सान्निध्य का अनुभव करना रहा। ये तीनों ही परमपराएं न्यूनाधिक प्राचीन थीं और यदि चाहें तो इन तीनों मूल स्त्रोतों का पता हम कुछ न कुछ अंशों तक, अपने प्राचीन साहित्य के भीतर भी पा ले सकते है। इन तीनों की रूपरेखा में, परिस्थितियों के अनुसार सदा कुछ न कुछ परिवर्तन होते आ रहे थे और इन तीनों का प्रभाव यहाँ के धार्मिक भावनाओं द्वारा अनुप्राणित प्रत्येक समाज या सम्प्रदाय पर, किसी न किसी रूप में बराबर पड़ता आ रहा था। तथा सभी कोई अपने साहित्य का निर्माण करते समय इनसे, किसी न किसी प्रकार, बराबर लाभान्वित भी होते आ रहे थे। तदनुसार हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक विकास में भी हम इन तीनों का ही हाथ निरन्तर स्पष्ट रूप में, देखते आये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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