मीराँबाई की पदावली पृ. 4

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई का जीवन-वृत्त

मीराँबाई के आविर्भाव-काल के विषय में बहुत दिनों तक पूरा मतभेद रहता आया है। तदनुसार, एक ओर, यदि बहुत से लोग इन्हें मेवाड़ के प्रसिद्ध महाराणा कुम्भ [1] की रानी समझते थे और कुछ लोग मैथिल कवि विद्यापति का समकालीन तक मानते थे, तो दुसरी ओर अन्य सज्जन इन्हें प्रसिद्ध राठौड़ वीर जयमल [2]की पुत्री ठहराते थे। इनके जन्म व मरण के संवतों के सम्बन्ध में, इसी कारण, बहुत-सी मनगढंत बातें प्रचलित हो चली थी-(देखो परिशिष्ट-क)। किन्तु राजस्थान के इतिहास-प्रेमियों ने अब खोज के उपरान्त, बहुत-सी बातें निश्चित सी कर दी है जिनके आधार पर इनका जीवन वृत, नीचे लिखे अनुसार, दिया जा सकता है। मीराँबाई, जोधपुर के संस्थापक सुप्रसिद्ध राठौड़ राजा राव जोधाजी [3] के पुत्र राव दूदाजी [4] की कुल व जन्म पौत्री थीं। राव दूदाजी ने अपने पिता के जीवन काल में ही, अपने भाई वरसिंह की सहायता से, मेड़ता के प्रान्त को, अजमेर के सूबेदार से छीनकर, उसके अन्तर्गत,सं0 1519 वि0 (सन् 1462 ई0 में, एक नया मेड़ता नगर बसाया था।
अतएव पीछे से, उक्त प्रान्त जब उन्हें पिता द्वारा जागीर में मिला तो, यही स्थान, जो जोधपुर नगर से लगभग 35 मील पूर्वोत्तर दिशा में अवस्थित है, उनकी राजधानी बना और, इसी के नाम पर, आगे चल कर, उनके वंशज मेड़तिया शाखा के राठौड़ कहलाये। मीराँबाई राव दूदाजी के चतुर्थ पुत्र रत्नसिंह [5] की इकलौती सन्तान थीं। रत्नसिंह को राव दूदाजी ने राज्य की ओर से, उनके जीवन निर्वाह के लिए जागीर में बाजोली, कुड़की, आदि 12 गाँव प्रदान किये थे और मीराँबाई का जन्म कुड़की गाँव में ही सं0 1555 वि0[6] के आसपास हुआ था। मीराँबाई के बचपन की घटनाओं में प्रसिद्ध है कि उन्हें अपनी शैशवा-वस्था में ही श्री गिरधरलाल का इष्ट हो गया था। एक बार, किसी समय, जब उनके पिता के घर कोई साधु आकर ठहरा तो, उसकी पूजा में श्री गिरधरलाल की सुन्दर मुर्ति देखकर, वे उसकी ओर आकृष्ट हो गयी और उसे लेने के लिए मचलने लगी, किंन्तु साधु उसे देने से इनकार कर वहाँ से चला गया और मीराँ ने हठपूर्वक अपना खाना-पीना तक छोड़ दिया। उधर साधु को स्वप्न हुआ कि मुर्ति को मीराँ के हाथ सौंप देने में ही तुम्हारा कल्याण है, जिससे विवश हो उसे ऐसा करने के लिए फिर वापस आना पड़ा। बालिका मीराँ मूर्ति को अपना कर अत्यन्त प्रसन्न हुई और उसे सदा अपने पास रखने लगी। इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि फिर कभी पड़ोस में किसी कन्या का विवाह होता देख, मीराँ अपनी माता से, भोलेपन में, पूछ बैठी कि,मेरा वर कौन है? जिसके उत्तर में माता ने हँसकर उक्त मुर्ति की ओर संकेत कर दिया और मीराँ को तभी से श्री गिरधरलाल की लगन लग गयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मृ0 सं0 1525वि0= सन् 1468 ई0
  2. मृ0 सं0 1624 वि0= सन् 1567 ई0)
  3. सं0 1462-1545 वि0=सन् 1415-1488 ई0
  4. सं0 1497-1572 वि0 सन् 1440-1515 ई0
  5. मृ0 सं0 1584 वि0= सन् 1527 ई0
  6. सन्1498= ई0

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