भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
5.गुरु कृष्ण
अवतार का सिद्धान्त आध्यात्मिक जगत के नियम की एक वाक्पटुतापूर्ण अभिव्यक्ति है। यदि परमात्मा को मनुष्यों का रक्षक माना जाए, तो जब भी कभी बुराई की शक्तियां मानवीय मान्यताओं का विनाश करने को उद्यत प्रतीत होती हों, तब परमात्मा को अपने-आप को प्रकट करना ही चाहिए। अवतार परमात्मा का मनुष्य में अवतरण है, मनुष्य का परमात्मा में आरोहण नहीं, जैसा कि मुक्त आत्माओं के मामले में होता है। यद्यपि प्रत्येक चेतन सत्ता इस प्रकार का अवतरण है, परन्तु वह केवल एक आच्छादित प्रकटन है। ब्रह्म की आत्मचेतन सत्ता और उसी की अज्ञान से आवृत्त सत्ता में अन्तर है। अवतरण या अवतार का तथ्य इस बात का द्योतक है कि ब्रह्म का एक पूर्ण सप्राण और शारीरिक प्रकटन से विरोध नहीं है। यह सम्भव है कि हम भौतिक शरीर में जी रहे हों और फिर भी हममें चेतना का पूर्ण सत्य विद्यमान हो। मानवीय प्रकृति कोई बेड़ी नहीं है, अपितु यह दिव्य जीवन का एक उपकरण बन सकती है। हम सामान्य मर्त्य लोगों के लिए जीवन और शरीर-अभिव्यक्ति के अज्ञानपूर्ण, अपूर्ण और अक्षम साधन होते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे सदा ऐसे ही हों। दिव्य चेतना इनका उपयोग अपने प्रयोजन के लिए करती है, जबकि अस्वतन्त्र मानवीय चेतना का शरीर, प्राण और मन की शक्तियों पर ऐसा पूर्ण नियन्त्रण नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निशीथे तु तमोद्भूते जायमाने जनार्दने, देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ...। वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः जनिष्यते। --भागवत 11, 23। ईसा के शरीर धारण के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है, उससे तुलना कीजिएः “जब सब वस्तुएं शान्त निस्तब्धता में मग्न थी और रात्रि अपने तीव्र पथ का आधा भाग पार कर चुकी थी, तब तेरा सर्वशक्तिमान शब्द स्वर्ग में तेरे राजसिंहासन से नीचे आया। ऐलेलुइया।” अवतार के सिद्धान्त ने ईसाई-जगत को काफ़ी कुछ विक्षुब्ध किया। एरियस का मत था कि पुत्र (ईसा) पिता के बराबर नहीं, अपितु उसके द्वारा उत्पन्न किया गया है। यह दृष्टिकोण कि वे एक-दूसरे से पृथक नहीं हैं, अपितु एक ही सत्ता के केवल विभिन्न प़क्ष हैं, सैबैलियस का सिद्धान्त है। पहली विचारधारा में पिता और पुत्र की पृथकता पर और पिछले सिद्धान्त में उन दोनों की एकता पर ज़ोर दिया गया है। अन्त में जो दृष्टिकोण प्रचलित हुआ वह यह था कि पिता और पुत्र बराबर हैं और एक ही तत्त्व है; परन्तु वे एक-दूसरे से पृथक व्यक्ति हैं।
- ↑ 10, 20; 18, 61
- ↑ सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितम्। भागवत्। देवकी दैवी प्रकृति है, दिव्य प्रकृति।
- ↑ मेरे विचार से ईसाइयों के पुनरुत्थान के सिद्धान्त का अर्थ यही है। ईसा का शारीरिक पुनरुत्थान महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं हैं, अपितु दिव्य (ब्रह्म) का पुनरुत्थान महत्त्वपूर्ण वस्तु है। मनुष्य का पुर्नजन्म, जो उसकी आत्मा के अन्दर एक ऐसी घटना के रूप में होता है, जिसके फलस्वरूप उसे वास्तविकता (ब्रह्म) का गम्भीरतर ज्ञान हो जाता है और परमात्मा तथा मनुष्य के प्रति उसका प्रेम बढ़ जाता है, सच्चा पुनरुज्जीवन है, जो मानवीय जीवन को उसके अपने दिव्य स्वरूप और लक्ष्य की चेतना तक ऊँचा उठा लेता है। परमात्मा अविराम सृजनशीलता है, अनवरत कर्म। वह मनुष्य का पुत्र है, क्योंकि मनुष्य पुनः उत्पन्न परमात्मा ही तो है। जब सनातन और सामयिक के बीच का पर्दा हट जाता है, तब मनुष्य परमात्मा के साथ-साथ और उसके संकेत पर चलने लगता है।
ऐंगेलस सिलेशियस से तुलना कीजिएः
चाहे ईसा हज़ार बार
बैथेलहम में जन्म ले,
पर यदि उसने तेरे अन्दर जन्म नहीं लिया
तो तेरी आत्मा अब भी भटकी हुई है;
गलगोथा पर खड़ा क्रॉस
तेरी आत्मा की रक्षा कभी न करेगा;
तेरे अपने हृदय में खड़ा क्रॉस
ही तुझे पूर्ण बना सकता है।
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