भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास (50)जिस व्यक्ति ने अपनी बुद्धि को (ब्रह्मा के साथ) जोड़ दिया है, (या जो अपनी बुद्धि में भलीभाँति स्थित हो गया है) वह अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्मों को यही छोड़ जाता है। इसलिए तू योग में जूट जा। योग सब कामों को कुलशता से करने का नाम है।वह नैतिक स्तर से भी, जिसमें अच्छे बुरे का भेद रहता है, ऊपर उठ जाता है। वह स्वार्थ-भावना से रहित होता है और इसलिए वह बुराई नहीं कर सकता। षंकराचार्य के मतानुसार, योग उस व्यक्ति द्वारा, जो भगवान् में अपने मन को लगाकर अपने उचित कर्त्तव्यों का पालन कर रहा हो, सफलता और विफलता और विफलता में मन को समान बनाए रखने का नाम है।[1] 51.कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । (51)वे ज्ञानी लोग, जिन्होंने अपनी बुद्धि को (ब्रह्मा से) मिलाकर एक कर दिया है, और कर्मां से प्राप्त होने वाले फलों का त्याग कर दिया है, जन्म के बन्धन से मुक्त होकर दुःखहीन दशा को प्राप्त होते हैं। जीवित रहते हुए भी वे जन्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं और विष्णु के उच्चतम पद को प्राप्त होते हैं, जिसे मोक्ष या मुक्ति कहा जाता है और जो सब प्रकार की बुराइयों से रहित है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वधर्माख्येषु कर्मसु वर्तमानस्य या सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वबुद्धिरीश्वरार्पितचेतस्तया। श्रीधर से तुलना कीजिए: कर्मजं फलं त्वक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थमेव कर्म कुर्वाणा मनीषिणों ज्ञानिनो भूत्वा जन्मरूपेण बन्धेन विनिर्मुक्ताः।
- ↑ जीवन्त एव जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः सन्तः पदं विष्णोः मोक्षाख्यं गच्छन्त्नामयं सर्वोपद्रवरहितम्। -शंकराचार्य।
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