भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 98

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

  
50.बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुयष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥

(50)जिस व्यक्ति ने अपनी बुद्धि को (ब्रह्मा के साथ) जोड़ दिया है, (या जो अपनी बुद्धि में भलीभाँति स्थित हो गया है) वह अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्मों को यही छोड़ जाता है। इसलिए तू योग में जूट जा। योग सब कामों को कुलशता से करने का नाम है।वह नैतिक स्तर से भी, जिसमें अच्छे बुरे का भेद रहता है, ऊपर उठ जाता है। वह स्वार्थ-भावना से रहित होता है और इसलिए वह बुराई नहीं कर सकता। षंकराचार्य के मतानुसार, योग उस व्यक्ति द्वारा, जो भगवान् में अपने मन को लगाकर अपने उचित कर्त्तव्यों का पालन कर रहा हो, सफलता और विफलता और विफलता में मन को समान बनाए रखने का नाम है।[1]

51.कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥

(51)वे ज्ञानी लोग, जिन्होंने अपनी बुद्धि को (ब्रह्मा से) मिलाकर एक कर दिया है, और कर्मां से प्राप्त होने वाले फलों का त्याग कर दिया है, जन्म के बन्धन से मुक्त होकर दुःखहीन दशा को प्राप्त होते हैं। जीवित रहते हुए भी वे जन्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं और विष्णु के उच्चतम पद को प्राप्त होते हैं, जिसे मोक्ष या मुक्ति कहा जाता है और जो सब प्रकार की बुराइयों से रहित है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वधर्माख्येषु कर्मसु वर्तमानस्य या सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वबुद्धिरीश्वरार्पितचेतस्तया। श्रीधर से तुलना कीजिए: कर्मजं फलं त्वक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थमेव कर्म कुर्वाणा मनीषिणों ज्ञानिनो भूत्वा जन्मरूपेण बन्धेन विनिर्मुक्ताः।
  2. जीवन्त एव जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः सन्तः पदं विष्णोः मोक्षाख्यं गच्छन्त्नामयं सर्वोपद्रवरहितम्। -शंकराचार्य।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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