प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 328

प्रेम योग -वियोगी हरि

Prev.png

दीनों पर प्रेम

हम नाम के ही आस्तिक हैं। हर बात में ईश्वर का तिरस्कार करके ही हमने ‘आस्तिक’ की ऊँची उपाधि पायी है। ईश्वर का एक नाम ‘दीनबंधु’ है। यदि हम वास्तव में आस्तिक हैं, ईश्वर भक्त हैं तो हमारा यह पहला धर्म है कि दीनों को प्रेम से गले लगावें, उनकी सहायता करें, उनकी सेवा करें, उनकी शुश्रूषा करें। तभी न दीनबंधु ईश्वर हम पर प्रसन्न होगा! पर ऐसा हम कब करते हैं? हम तो दीन दुर्बलों को ठुकरा ठुकराकर ही आस्तिक या दीनबंधु भगवान् के भक्त आज बने बैठे हैं। दीनबंधु की ओट में हम दीनों का खासा शिकार खेल रहे हैं। कैसे अद्वितीय आस्तिक हैं हम! न जाने क्या समझकरर हम अपने कल्पित ईश्वर का नाम दीनबंधु रक्खे हुए हैं, क्यों इस रद्दी नाम से उस लक्ष्मीकांत का स्मरण करते हैं-

दीननि देखि घिनात जे, नहि दीननि सों काम।
कहा जानि ते लेत हैं, दीनबंधु कौ नाम।।

यह हमने सुना अवश्य है कि त्रिलोकेश्वर श्रीकृष्ण की मित्रता और प्रीति सुदामा नाम के एक दीन दुर्बल ब्राह्मण से थी। यह भी सुना है कि भगवान् यदुराज ने महाराज दुर्योधन का अतुल आतिथ्य अस्वीकार कर बड़े प्रेम से गरीब विदुर के यहाँ साग भाजी का भोग लगाया था। पर यह बातें चित्त पर कुछ बैठती नहीं। रहा हो कभी ईश्वर का दीनबंधु नाम, पुरानी सनातनी बात है, कौन काटे। पर हमारा भगवान्, दीनों का भगवान् नहीं है। हरे हरे! वह उन घिनौनी कुटियों में रहे जायेगा? वह रत्न जटित स्वर्ण सिंहासन पर विराजनेवाला ईश्वर उन भुक्खड़ कंगलों के फटे कटे कम्बलों पर बैठने जायेगा?

वह मालपुआ और मोहनभोग आरोगने वाला भगवान् उन भिखारियों की रूखी सूखी रोटी खाने जायेगा। कभी नहीं हो सकता। हम अपने बनवाये हुए विशाल राज मंदिरों में उन दीन दुर्बलों को आने भी न देंगे। उन पततों और अछूतों की छाया तक हम अपने खरीदे हुए खास ईश्वर पर न पड़ने देंगे। दीन दुर्बल भी कहीं ईश्वरभक्त होते सुने हैं? ठहरो ठहरो, यह कौन गा रहा है? ठहरो, जरा सुनो। वाह!

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः