प्रेम योग -वियोगी हरि
मातृ भक्तिमेरे कुछ आदरणीय मित्रों की शायद ऐसी धारणा है कि प्रेम के इस अनुपमेय अंग पर मैं अपने कुछ निजी विचार प्रकट कर सकता हूँ। क्षमा करें मेरे सहृदय सुहृद्वर, मेरे विषय में उनका यह सबसे भारी भ्रम सिद्ध होगा। इस कृतघ्नतापूर्ण नीरस हृदय में मातृ भक्ति के लिए कदाचित् ही किंचित् स्थान हो। हाँ, यह जानने की चेष्टा मैं अवश्यक कर रहा हूँ कि क्या मातृ भक्ति ही प्रेम रस की मुख्य निर्झरी है। एक धुंधली सी याद आती तो है उन चरणों की पर कहूँ क्या, लिखूँ क्या! यह तो प्रायः स्पष्ट है कि उन श्रीचरणों का ध्यान चित्र इस जीवन में तो अंकित न हो सकेगा। मेरे मित्र मुझसे उस चित्रांकन की आशा कृपा कर न करें तो अच्छा। इस पतित पामर से वह पवित्र साधना किसी प्रकार न सध सकेगी। हाँ, एक दिन अनजान में, ये शब्द अवश्य मुझ से निकल गये थे- प्रकृति पुरुष की एकता, माता गुरू अभेद। माता ही प्रकृति है और गुरु ही पुरुष है। जन वत्सलता भी माता का एक पवित्र नाम है, जैसे ज्ञान वा सद्विवेक गुरु का एक सुंदर नाम है। माया की प्रत्यक्षानुभूति भगवत् कृपा के सात्विक रूप में उसी प्रकार हो सकती है, जिस प्रकार गुरु का प्रत्यक्ष दर्शन आत्मा के शुद्ध रूप में किया जा सकता है। इसी प्रकार माता-को हम श्री कहेंगे और गुरु को हरि। माता परा प्रकृति है और गुरु परम पुरुष। जैसे अंत में प्रकृति और पुरुष में कोई भेद नहीं रह जाता, वैसे ही माता और गुरु में भी ‘अभेद’ स्थापित हो जाता है। ऐसा कुछ अनुभव में आता है कि यह अभेद ही ‘कैवल्य’ है। कहना चाहो, तो कह लो इस आयँ बायँ को हम जैसे पागलों का सांख्य दर्शन। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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