प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 317

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मातृ भक्ति

मेरे कुछ आदरणीय मित्रों की शायद ऐसी धारणा है कि प्रेम के इस अनुपमेय अंग पर मैं अपने कुछ निजी विचार प्रकट कर सकता हूँ। क्षमा करें मेरे सहृदय सुहृद्वर, मेरे विषय में उनका यह सबसे भारी भ्रम सिद्ध होगा। इस कृतघ्नतापूर्ण नीरस हृदय में मातृ भक्ति के लिए कदाचित् ही किंचित् स्थान हो। हाँ, यह जानने की चेष्टा मैं अवश्यक कर रहा हूँ कि क्या मातृ भक्ति ही प्रेम रस की मुख्य निर्झरी है। एक धुंधली सी याद आती तो है उन चरणों की पर कहूँ क्या, लिखूँ क्या! यह तो प्रायः स्पष्ट है कि उन श्रीचरणों का ध्यान चित्र इस जीवन में तो अंकित न हो सकेगा। मेरे मित्र मुझसे उस चित्रांकन की आशा कृपा कर न करें तो अच्छा। इस पतित पामर से वह पवित्र साधना किसी प्रकार न सध सकेगी।

हाँ, एक दिन अनजान में, ये शब्द अवश्य मुझ से निकल गये थे-

प्रकृति पुरुष की एकता, माता गुरू अभेद।
जाके मन यह भावना, जानत सोइ सत वेद।।
जन वत्सलता, कृपा, श्री पराप्रकृति मम मात।
ज्ञान, विवेक, स्वरूप हरि, सतगुरु जग विख्यात।।

माता ही प्रकृति है और गुरु ही पुरुष है। जन वत्सलता भी माता का एक पवित्र नाम है, जैसे ज्ञान वा सद्विवेक गुरु का एक सुंदर नाम है। माया की प्रत्यक्षानुभूति भगवत् कृपा के सात्विक रूप में उसी प्रकार हो सकती है, जिस प्रकार गुरु का प्रत्यक्ष दर्शन आत्मा के शुद्ध रूप में किया जा सकता है। इसी प्रकार माता-को हम श्री कहेंगे और गुरु को हरि। माता परा प्रकृति है और गुरु परम पुरुष। जैसे अंत में प्रकृति और पुरुष में कोई भेद नहीं रह जाता, वैसे ही माता और गुरु में भी ‘अभेद’ स्थापित हो जाता है। ऐसा कुछ अनुभव में आता है कि यह अभेद ही ‘कैवल्य’ है। कहना चाहो, तो कह लो इस आयँ बायँ को हम जैसे पागलों का सांख्य दर्शन।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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