प्रेम योग -वियोगी हरि
शान्त भावबिना विवेक के शान्ति कहाँ और बिना शान्ति के प्रेम कहाँ! विरक्ति रहित अनुरक्ति अपूर्ण है और अनुरक्तिहीन विरक्ति निस्सार है। हम देहात्मवादियों का जीवन तब तक कैसे प्रेमपूर्ण और आनन्दमय हो सकता है, जब तक हमने यह नहीं जान लिया कि क्या तो सत् है और क्या असत्? साधारणतया हम लोगों की आसक्ति 'असत्' के ही साथ होती है। यही कारण है कि हम प्रेम के नाम पर मोह को खरीद बैठते हैं। सत् के प्रति हमारा अनुराग होता ही कब है? हमारी विवेक हीनता तो देखो- मोहमूलक आसक्ति को हमने प्रेम मान लिया है! कहो, अब हमारे जर्जरीभूत हृदय में शांति कहाँ से आये, उस मरुस्थली पर प्रेम धारा कैसे बहे। हमें अपनी मूढ़ता पर कभी पश्चाताप भी नहीं होता! नित्य ही सुनते हैं कि- 'मैं मैं' बड़ी बलाय है, सको तो निकसो भागि। फिर भी अहंता की अशान्ति में सुख मान रहे हैं, खुदी की आग में कूद कूदकर खेल रहे हैं। कैसे भूले हुए हैं हम इस अनन्त काम कानन में! यद्यपि कोई हमारे कान में यह कह रहा है कि- सुनहु, पथिक! भारी, कुंज लागी दवारी। तो भी हम किसी जानकार से उधर- उस प्रेम नगरी की ओर जाने का मार्ग नहीं पूछते! कैसे प्रवीण पथिक हैं हम! अजी, मिल जायेगा किसी दिन उधर जाने का कोई सीधा सा रास्ता! ऐसी क्या जल्दी पड़ी है। अजर-अमर हैं न हम! हाँ, यह सुना जरूर है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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