प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 291

प्रेम योग -वियोगी हरि

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शान्त भाव

बिना विवेक के शान्ति कहाँ और बिना शान्ति के प्रेम कहाँ! विरक्ति रहित अनुरक्ति अपूर्ण है और अनुरक्तिहीन विरक्ति निस्सार है। हम देहात्मवादियों का जीवन तब तक कैसे प्रेमपूर्ण और आनन्दमय हो सकता है, जब तक हमने यह नहीं जान लिया कि क्या तो सत् है और क्या असत्? साधारणतया हम लोगों की आसक्ति 'असत्' के ही साथ होती है। यही कारण है कि हम प्रेम के नाम पर मोह को खरीद बैठते हैं। सत् के प्रति हमारा अनुराग होता ही कब है? हमारी विवेक हीनता तो देखो- मोहमूलक आसक्ति को हमने प्रेम मान लिया है! कहो, अब हमारे जर्जरीभूत हृदय में शांति कहाँ से आये, उस मरुस्थली पर प्रेम धारा कैसे बहे। हमें अपनी मूढ़ता पर कभी पश्चाताप भी नहीं होता! नित्य ही सुनते हैं कि-

'मैं मैं' बड़ी बलाय है, सको तो निकसो भागि।
कह कबीर, कबलगि रहै, रुई लपेटी आगि।।

फिर भी अहंता की अशान्ति में सुख मान रहे हैं, खुदी की आग में कूद कूदकर खेल रहे हैं। कैसे भूले हुए हैं हम इस अनन्त काम कानन में! यद्यपि कोई हमारे कान में यह कह रहा है कि-

सुनहु, पथिक! भारी, कुंज लागी दवारी।
जहँ जहँ मृग भागे, देखिये, जात आगे।।
फिरत कित भुलाने, पाय ह्वै हैं पिराने।
सुगम सुपथ चाहू, बूझिए क्यों न काहू।।- दीनदयाल गिरि

तो भी हम किसी जानकार से उधर- उस प्रेम नगरी की ओर जाने का मार्ग नहीं पूछते! कैसे प्रवीण पथिक हैं हम! अजी, मिल जायेगा किसी दिन उधर जाने का कोई सीधा सा रास्ता! ऐसी क्या जल्दी पड़ी है। अजर-अमर हैं न हम! हाँ, यह सुना जरूर है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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