प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगप्रेम जय हो इन दो दिव्य वर्णों की। जय हो इस अनिर्वचनीय प्रेम की। जिसे पाकर सचमुच फिर किसी अन्य वस्तु के पाने की लालसा इस अतृप्त हृदय में नहीं रह जाती, जिस चाह से इस लालची दिल की सारी चाह सदा क लिए चली जाती है, उस जगत्पावन प्रेम की जय हो, जय हो! मेरी यह ढिठाई! मेरी ये अनाड़ी उँगलियाँ आज उस व्यक्त प्रेम की मधुर स्मृति का एक सर्वांग सुंदर चित्र खींचने को अधीर हो रही हैं! उसकी तसबीर ये कैसे उतार सकेंगी। किस चतुर चितेरे की कला ने उस चित्र के खींचने में सफलता पायी है? लिखन बैठ जाकी सबी, गहि- गहि गरब गरूर। या किस कवि के शब्दों ने उस पर अपनी प्रतिभा का प्रकाश बिखेरकर उसे रस विभोर किया है? प्रेम की रचन कौन रचेगा और उसे कौन पढ़ेगा। यह सब जानते हुए भी जी नहीं मानता, कुछ न कुछ कहने को व्याकुल हो रहा है। यह निरा पागलपन नहीं तो फिर क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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