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प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रकृति में ईश्वर प्रेमन पवन ने ही अभी तक उस प्यारे का मधुमय स्पर्श कर पाया और न जलने ही अब तक उसके पैर पखार पाये हैं। वियोगिनी आग भी निराश होकर तभी से आहें भर रही है- चाँद सुरुज औ नखत तराई। तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई।। सौंदर्य शों से बिंधी हुई प्रकृति के आहत अंगों की परम प्रेम ही अब तक रक्षा किये हुए है। प्रेम की धवल धारा ने ही इन सारे घायलों को प्रिय मिलन की आशा दे रक्खी है। प्रकृति का महान् उपकार किया है इस प्रेम धारा ने। धन्य! ओस तृण लता कुसुम विटप पल्लव सिंचन रत। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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