प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 327

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रकृति में ईश्वर प्रेम

न पवन ने ही अभी तक उस प्यारे का मधुमय स्पर्श कर पाया और न जलने ही अब तक उसके पैर पखार पाये हैं। वियोगिनी आग भी निराश होकर तभी से आहें भर रही है-

चाँद सुरुज औ नखत तराई। तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई।।
पवन जाइ तहं पहुँचै चहा। मारा तैस लोटि भुइँ रहा।।
अगिनि उठि, जरि, बुझी निआना। धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना।।
पानि उठा, उठि जाइ न छुआ। बहुरा रोइ आइ भुइँ चूआ।। -जायसी

सौंदर्य शों से बिंधी हुई प्रकृति के आहत अंगों की परम प्रेम ही अब तक रक्षा किये हुए है। प्रेम की धवल धारा ने ही इन सारे घायलों को प्रिय मिलन की आशा दे रक्खी है। प्रकृति का महान् उपकार किया है इस प्रेम धारा ने। धन्य!

ओस तृण लता कुसुम विटप पल्लव सिंचन रत।
बहु तरु चंदन करी सुरभि मलयाद्रि अंकगत।।
विविध दिव्य मणिजनित ज्योति उज्ज्वल उपकारी।
बहु औषधी प्रसूत शक्ति जीवन संचारी।।
जगत जीव प्रतिपालिका पय धारा उरजो भरी।
क्या है? नाना मूर्तिधर ‘प्रेम धार’ ही अवतारी।। - हरिऔध

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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