प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 247

प्रेम योग -वियोगी हरि

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वात्सल्य

उस विश्व विमोहन बालकृष्ण का ध्यान पगली यशोदा कैसे भुला दे। वह बाल छबि क्या भुला देने की वस्तु है? उस प्राण प्यारे कान्ह को कोई कैसे ध्यान पथ से हटा सकेगा? मियाँ रसखानि ने कैसा साफ कहा है कि भाई! खुशनसीब तो वही गिना जाएगा, जिसने नन्दनन्दन की वह बचपने को भोली सूरत टुक निहार ली है। एक दिन धूलि धूसरित बाल गोविंद अपने आँगन में ठुमुक ठुमुक खेल रहे थे। माखन रोटी भी हाथ में लिये खाते फिरते थे। पैरों में पैजनियाँ रुनक झुनक बज रही थीं। पीली कछोटी काछे हुए थे और छीनी झंगुलिया पहने थे। मौज में खेल रहे थे। इतने में एक कौआ कहीं से उड़ता हुआ आया और गोपाल के हाथ से उनका माखन और रोटी छीनकर ले गया। आप, ‘मैया! मेरी माखन लोटी, ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ’ करते हुए रोने लगे। उस काग के भाग्य की सराहना कहाँ तक की जाय! उस जूठी माखन रोटी को छीन लेने के लिए ऐसा कौन अभागा होगा, जो कौआ बनने को उत्कण्ठित और अधीर न होता होगा। अहा!

धूरिमरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत लात फिरै अँगना, पग पैजनी बाजतीं, पीरी कछोटी।।
वा छबिकों ‘रसखानि’ विलोकत, वारद काम कलानिधि कोटी।
कालक करण कहा कहिए, हरि हाथसों लै गयो माखन रोटी।।

भक्तवर भुशुण्डि ने काक योनि में इसीलिए जन्म लेना स्वीकार किया था कि दशरथ कुमार राम जहाँ जहाँ खेलते खाते फिरेंगे तहाँ तहाँ भी उनके साथ साथ उड़ता फिरूँगा और जो जूठन आँगन में गिरेगी, उसे बड़े चाव से उठा उठाकर खाऊँगा-

लरिकाई जहँ जहँ फिरहिं, तहँ तहँ संग उड़ाऊँ।
जूठन परइ अजिर महं सोइ उठाइ करि खाउँ।। - टुलटी
अहोभाग्य! अहोभाग्य!!
काग के भाग कहा कहिए, हरि हाथसों लै गयो माखन रोटी।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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