प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्यमहाकवि देव ने निम्नांकित पद्य में वात्सल्य रस को कैसी दिव्य धारा बहायी है। नन्दनन्दन गिरिराज को उँगली पर उठाये खड़े हैं। यशोदा अपने छोटे से कन्हैया का यह दुस्साहस देखकर घबरा रही है। कहाँ तो मेरे बच्चे की यह नन्ही सी बाँह और कहाँ यहु गगनचुम्बी गोवर्धन गिरि और तिस पर प्रलयंकर इन्द्र का कोप! मेरे गिरिधारी गिरि धारय्यौ धरि धीरजु, बाँह के लचक या मुरक जाने में संदेह ही क्या है। पर यह कन्हैया किसी को माने तब न? किया क्या जाय, बड़ा हठी है। आज अक्रूर के साथ मथुरा जाने को राम और कृष्ण अधीर हो रहे हैं। अरे भाई, सभश्री तो वहाँ जा रहे हैं। फिर ये बच्चे हैं, इन्हें जाने का उमाह क्यों न हो? पर माता यशोदा कैसे जाने देंगी। अपने हृदय दुलारे छोटे से कान्ह को वह कैसे अपनी आँखों की ओट करेंगी? उनका यह भी कहना है कि मथुरा जैसी विशाल नगरी में मेरे ये छोटे छोटे बालक जाकर करेंगे क्या? नागरिकता ये गँवार देहाती लड़के क्या जानें! इन्होंने तो अब तक गायें ही चरायी हैं। यमुना और वृन्दावन ही इन्होंने देखा है। कहीं उस नगरी की गलियों में ये भोले बच्चे भूल न जायँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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