प्रेम योग -वियोगी हरि
कुछ आदर्श प्रेमीमकर, उरग, दादुर कमठ, जल जीवन जल गेह। सच्चा स्नेह न होता, तो अपने प्यारे से बिछुड़ते ही वह मछली अपने प्राण कैसे त्याग देती? वियोग तो, बस, मीन का ही है। जब तक अपने प्रिय के साथ है, तभी तक उसका जीवन है। प्रिय विहीन जीवन का उसकी दृष्टि में कोई मूल्य ही नहीं। कबीर ने सच कहा है- अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह। जब तक जीवन धन, तब तक जीवन। प्रियतम और जीवन दो भिन्न वस्तुएँ तो हैं नहीं। अभिन्न को कौन भिन्न कर सकता है? इसी से- जल में विष ही क्यों न घुला हो, पर मछली को तो वह जीवन दाता अमृत ही है- देउ आपने हाथ जल, मीनहि माहुर धोरि। दही और दूध से भरे हुए भारी भारी सागर उसके किस काम के? उसकी लौ तो केवल जल से लगी हुई है, सो एक छोटी सी पोखरी में ही उसे असीम आनन्द मिल रहा है। पर जल को उसके प्रेम की ऐसी कोई परवा नहीं। कितनी मछलियाँ उसके निर्दय अंक पर नित्य जाल मं फँसती और मरती हैं, पर जलाशय को तनिक भी दुख नहीं होता। वह तो ज्यों का त्यों मौज में लहराता रहता है! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज