प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 111

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमोन्माद

रसिकवर हरिश्चंद्र ने भी एक ऐसी ही उन्मादिनी का चित्र खींचा है, टुक उसे भी एक नजर देखते चलो-

भूल सी, भ्रमी सी, चौंकी, जकी सी, थकी सी गोपी
दुखी सी रहति, कछु नाहिं सुधि देहकी।
मोही सी, लुमाई, कछु मोदक सी खायें सदा,
बिसरी सी रहै नैकु खबर न गेह की।।
रिस भरी रहै, कबों फूली न समाति अंग,
हँसि हँसि कहै बात अधिक उमेह की।
पूँछे तें खिसानी होय, उत्तर न आवै ताहि,
जानो हम जानी है निसानी या सनेह की।।

प्रेम रसोन्मत्त की गति अगम्य है। कौन उसकी महिमा का पार पा सकता है? उसके लक्षण विलक्षण होते हैं। श्रीमद्भागवत में प्रेमोन्मत्त भक्त की महिमा एक स्थल पर भगवान् ने स्वयं अपने श्रीमुख से इस प्रकार गायी है-

वाग्ग्दनदा द्रवते यस्य चित्तं
हसत्यमीक्ष्णं रुदति क्वचिच्च।
विलज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति।।

अर्थात्, जिसकी वाणी गद्गद हो गयी, जिसका चित्त भावातिरेक से द्रवित हो गया है, जो कभी रो उठता है, कभी निर्लज्ज हो उच्च स्वर से गाने और कभी नाचने लगता है, ऐसा भक्तियुक्त महाभाग संसार को पवित्र करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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