प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमोन्मादरसिकवर हरिश्चंद्र ने भी एक ऐसी ही उन्मादिनी का चित्र खींचा है, टुक उसे भी एक नजर देखते चलो- भूल सी, भ्रमी सी, चौंकी, जकी सी, थकी सी गोपी प्रेम रसोन्मत्त की गति अगम्य है। कौन उसकी महिमा का पार पा सकता है? उसके लक्षण विलक्षण होते हैं। श्रीमद्भागवत में प्रेमोन्मत्त भक्त की महिमा एक स्थल पर भगवान् ने स्वयं अपने श्रीमुख से इस प्रकार गायी है- वाग्ग्दनदा द्रवते यस्य चित्तं अर्थात्, जिसकी वाणी गद्गद हो गयी, जिसका चित्त भावातिरेक से द्रवित हो गया है, जो कभी रो उठता है, कभी निर्लज्ज हो उच्च स्वर से गाने और कभी नाचने लगता है, ऐसा भक्तियुक्त महाभाग संसार को पवित्र करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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