गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 86

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ

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[आठ प्रकार की नायिका जैसे 1. अभिसारिका 2. वासकसज्जा 3. उत्कण्ठिता 4. खण्डिता 5. विप्रलब्धा 6. कलहान्तरिता 7. प्रेषित-भर्त्तृका 8. स्वाधीन भर्त्तृका]

प्रस्तुत श्लोक में सम्भोग रस के पुष्टिकारक विप्रलम्भ श्रृंगार का वर्णन करते हुए विरहोत्कण्ठिता नायिका राधिका का वर्णन कर रहे हैं। उद्धाम, मन्मथभाव से पीड़ित, महाज्वरग्रस्त, कम्पितांगी, रोमांञचित, मलिनवपुमयी, पुन:पुन: मोह को प्राप्त होने वाली वेपथुयुक्ता, सघनरूप से पुलकित और उत्कण्ठिता होकर बोलने वाली उत्कण्ठिता नायिका के लक्षण भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में बताये हैं। श्रृंगार तिलक[1] में विरहोत्कण्ठिता नायिका के निम्नांकित लक्षण बताये गये हैं-

उत्का भवति सा यस्या: सप्रेतं नागत: प्रिय:।
तस्याऽनागमने हेतुं चिन्तयत्याकुला यथा

अर्थात जिस नायिका का नायक सप्रेतकाल में सप्रेत स्थान पर नहीं आता है, वह विरहोत्कण्ठिता नायिका कहलाती है, वह अपने प्रियतम के नहीं आने के कारण सोच समझकर व्याकुल हो जाती है। यह श्लोक विप्रलम्भ श्रृंगार वर्णन की भूमिका स्वरूप है। कवि कह रहे हैं कि वासन्तिक काल में कोई एक सखी राधिका जी से कहने लगी- "हे राधे! तुम्हारा शरीर माधवी पुष्पों के समान अतिशय सुकोमल है और तुम यहाँ कण्टक कुशयुक्त, बीहड़ वन में कान्त श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए भ्रमण कर रही हो, इतना अन्वेषण करने पर भी तुम्हें प्रियतम नहीं मिले। कन्दर्प-वाण से पीड़ित, अति तीव्र कामज्वर से सन्तप्त तुम उन्हें पाने की लालसा में व्याकुल हो रही हो।"

प्रस्तुतपद्य में 'वसन्त' पद के द्वारा कालरूपी उद्दीपन विभाव को बतलाया है। 'चलद्र' यह पद श्रीराधा जी का विशेषण है, इससे सूचित होता है कि उन्होंने श्रीकृष्ण को कानन में बार-बार अन्वेषण किया कि प्रियतम शायद अब आयें, अब आयें। 'वासन्ती सुकुमारयवै' उन श्रीराधा जी के अंग सुकुमार हैं। वासन्ती कुसुम अर्थात माधवी लता। वसन्त ऋतु यह लता पूर्णतया विकसित हो जाती है, वासन्ती लता के पुष्प अत्यन्त मनोज्ञ तथा सुकुमार होते हैं, उसी प्रकार श्रीराधा जी के अंग अत्यन्त मनोहर तथा सुकुमार हैं यह इस पद के द्वारा सूचित होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1-75

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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