गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 85

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ

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वसन्ते वासन्ती-कुसुम-सुकुमारैरवयवै-
र्भ्रमन्तीं कान्तारे बहुबिहित-कृष्णानुसरणाम्।
अमन्दं कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुलतया
बलद्रबाधां राधां सरसमिदमूचे सहचरी ॥1॥[1]

अनुवाद- किसी समय वसन्त ऋतु की सुमधुर बेला में विरह-वेदना से अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिन से दूसरे विपिन में श्रीकृष्ण का अन्वेषण करने लगी, माधवी लता के पुष्पों के समान उनके सुकुमार अंग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ता के कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातों से सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ॥1॥

पद्यानुवाद
कौन वह दुर्गम वनों में, त्रस्त-मातल डोलती है?
फूल वासन्ती शरीरी, कृष्णका मन तोलती है?
देखकर कन्दर्प ज्वरसे, क्रान्त; मन को खोलती है।
एक सहचरी हो सदय यह, राधिका से बोलती है

बालबोधिनी- प्रस्तुत पद्य में महाकवि श्रीजयदेव जी ने सर्वप्रथम श्रीराधामाधव के मंगलमय मधुर मिलन के द्वारा उनके महा उत्कर्ष का वर्णन किया है। इसी उपक्रम में श्रीराधामाधव की रह:केलिका वर्णन करने से कवि का हृदय विकसित कमल की भाँति आनन्द में उच्छलित होने लगा है। इसलिए रसिक कवि ने दक्षिण, धृष्ट एवं शठ नायक के गुणों से विभूषित श्रीकृष्ण को श्रीराधिका के प्रति अनुकूल नायक के रूप में प्रकट किया है। श्रीशुकदेव जी ने जैसे 'सूची कटाह' न्याय से अर्थात्र स्वल्प परिश्रम-साध्य कार्य का सम्पादन कर पीछे बहु-परिश्रम-साध्य कार्य को सम्पन्न करने की भाँति समस्त गोपियों की पहले श्रेष्ठता दिखलाकर अन्त में श्रीराधा जी की सर्वश्रेष्ठता प्रतिपादित की है। उसी प्रकार कवि ने श्रीराधा में आठ प्रकार के नायिका-लक्षणों का वर्णन करते हुए श्रीराधा जी को सर्वनायिका-शिरोमणि सिद्ध किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [श्रीराधाया अष्टनायिकावस्थां वर्णयन् सम्भोगपोषक-विप्रलम्भ-श्रृंगार-वर्णनाय प्रथमं विरहोत्कण्ठितामाह]- काचित् सहचरी (सखी) वसन्ते (वसन्तकाले) वासन्तीकुसुमसुकुमारै: (वासन्तीपुष्पैरिव सुकुमारै: यूथिकाकुसुमपेलवैरित्यर्थ:) अवयवै: (अंगैरुपलक्षितामित्यर्थ:) कान्तारे (निविडे वने) भ्रमन्तीं बहु-बिहित-कृष्णानुसरणाम् (बहु यथातथा बिहितं कृतं कृष्णानुसरणं यया ताम्) [अतएव] अमन्दं (नितान्तं) कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुलतया (कामसन्तापजनिता या चिन्ता उत्कण्ठा तया आकुलतया कातरतया) बलद्वाधां (परिवर्द्धमान-मदनपीडां) राधाम् इदं (वक्ष्यमाणं) सरसं (रसवत्र) वच: ऊचे॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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