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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ तृतीय सन्दर्भ
वसन्ते वासन्ती-कुसुम-सुकुमारैरवयवै- अनुवाद- किसी समय वसन्त ऋतु की सुमधुर बेला में विरह-वेदना से अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिन से दूसरे विपिन में श्रीकृष्ण का अन्वेषण करने लगी, माधवी लता के पुष्पों के समान उनके सुकुमार अंग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ता के कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातों से सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ॥1॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- प्रस्तुत पद्य में महाकवि श्रीजयदेव जी ने सर्वप्रथम श्रीराधामाधव के मंगलमय मधुर मिलन के द्वारा उनके महा उत्कर्ष का वर्णन किया है। इसी उपक्रम में श्रीराधामाधव की रह:केलिका वर्णन करने से कवि का हृदय विकसित कमल की भाँति आनन्द में उच्छलित होने लगा है। इसलिए रसिक कवि ने दक्षिण, धृष्ट एवं शठ नायक के गुणों से विभूषित श्रीकृष्ण को श्रीराधिका के प्रति अनुकूल नायक के रूप में प्रकट किया है। श्रीशुकदेव जी ने जैसे 'सूची कटाह' न्याय से अर्थात्र स्वल्प परिश्रम-साध्य कार्य का सम्पादन कर पीछे बहु-परिश्रम-साध्य कार्य को सम्पन्न करने की भाँति समस्त गोपियों की पहले श्रेष्ठता दिखलाकर अन्त में श्रीराधा जी की सर्वश्रेष्ठता प्रतिपादित की है। उसी प्रकार कवि ने श्रीराधा में आठ प्रकार के नायिका-लक्षणों का वर्णन करते हुए श्रीराधा जी को सर्वनायिका-शिरोमणि सिद्ध किया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [श्रीराधाया अष्टनायिकावस्थां वर्णयन् सम्भोगपोषक-विप्रलम्भ-श्रृंगार-वर्णनाय प्रथमं विरहोत्कण्ठितामाह]- काचित् सहचरी (सखी) वसन्ते (वसन्तकाले) वासन्तीकुसुमसुकुमारै: (वासन्तीपुष्पैरिव सुकुमारै: यूथिकाकुसुमपेलवैरित्यर्थ:) अवयवै: (अंगैरुपलक्षितामित्यर्थ:) कान्तारे (निविडे वने) भ्रमन्तीं बहु-बिहित-कृष्णानुसरणाम् (बहु यथातथा बिहितं कृतं कृष्णानुसरणं यया ताम्) [अतएव] अमन्दं (नितान्तं) कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुलतया (कामसन्तापजनिता या चिन्ता उत्कण्ठा तया आकुलतया कातरतया) बलद्वाधां (परिवर्द्धमान-मदनपीडां) राधाम् इदं (वक्ष्यमाणं) सरसं (रसवत्र) वच: ऊचे॥
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