गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 63

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद्विभ्रते
दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।
पौलस्तं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नम: ॥12॥
इति श्रीगीतगोविन्दे प्रथम: सन्दर्भ:।[1]

अनुवाद- वेदों का उद्धार करने वाले, चराचर जगत को धारण करने वाले, भूमण्डल का उद्धार करने वाले, हिरण्यकशिपु को विदीर्ण करने वाले, बलि को छलने वाले, क्षत्रियों का क्षय करने वाले, पौलस्त (रावण) पर विजय प्राप्त करने वाले, हल नामक आयुध को धारण करने वाले, करुणा का विस्तार करने वाले, म्लेच्छों का संहार करने वाले इस दश प्रकार के शरीर धारण करने वाले हे श्रीकृष्ण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥12॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अधुना सर्वेषामेव दशावताराणां पूर्णपुरुषे श्रीकृष्णे परिणतिं भगिंक्रिमेणाह।-[प्रलयपयोधिमग्नान्] वेदान् उद्धरते [मीनरूपाय तुभ्यं], जगन्ति वहते (पृष्ठदेशेन उद्वहते) (कूर्मरूपाय तुभ्यं) भूगोलम् (भूमण्डलम्) उद्विभ्रते (दशनेन ऊर्द्ध्‌वं तोलयते) [वराहरूपाय तुभ्यं], दैत्यं (हिरण्यकशिपुं) दारयते (नखै: विदारयते) [नृसिंहरूपाय तुभ्यं, बलिं (दैत्येश्वरं) छलयते (वञ्चयते) [वामनरूपाय तुभ्यं], क्षत्रक्षयं (क्षत्रियध्वसं) कुर्वते [जामदग्न्यरूपाय तुभ्यं], पौलस्त्यं (रावणं) जयते [रामरूपाय तुभ्यं, [दुष्टदमनाय] हलं [लागंलं] कलयते (धारयते) [बलभद्ररूपाय तुभ्यं], म्लेच्छान् [अनार्याचारान्] मूर्च्छयते (नाशयते) [कल्किरूपाय तुभ्यं] अतएव दशाकृतिकृते (दशावतार रूपधराय) कृष्णाय (स्वयं भगवते वासुदेवाय) तुभ्यं नम: [एतेषामवतारित्वेन श्रीकृष्णस्य सर्वरसत्त्वं सिद्धम्। बुद्धो नारायणोपेन्द्रौ नृसिंहो नन्दनन्दन:। बल: कूर्मस्तथा कल्की राघवो भार्गव: किरि:। मीन इत्येता: कथिता: क्रमाद्वादश: देवता:॥ "इति भक्तिरसामृतसिन्धौ रसाधिष्ठातार: ॥]" ॥12॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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