गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 62

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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शुभदं-शुभदायी होने से परमात्मा की प्राप्ति के समस्त प्रतिबन्धकों का विनाश करने वाला है।

भवसारम- संसाररूपी सागर को पार करने के जितने भी साधन हैं, उन सब में प्रधान है।

भवच्छेदक हेतु मध्ये सारम-यह मध्यपदलोपी समास 'भवसारम्' पद में जानना चाहिए।

जय- वर्त्तमानकालिक क्रियापद के द्वारा यह सूचित होता है कि भगवान के समस्त अवतार नित्य एवं उनकी लीलाएँ भी नित्य हैं। कवि ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि श्रीकृष्ण सभी अवतारों के मूल कारण हैं। उन्हीं से सभी अवतारों का प्राकट्य हुआ है, वे सभी रूपों में सत्य हैं, अतएव पूर्णावतारी, नित्य लीला विलासी, दशावतार स्वरूप, सर्वाकर्षक एवं आनन्द प्रदाता आपकी नित्य ही जय जयकार हो। उदात्त तथा सरल भाषा में मैंने आपकी स्तुति की है। आप इसका श्रवण करें। आपका भक्त कवि जयदेव आपको यह स्तुति निवेदन कर रहा है।

प्रस्तुत श्लोक में शान्त रस तथा पर्यायोक्ति अलंकार है ॥11॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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