गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 511

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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साध्वी माध्वीक! चिन्ता न भवति भवत: शकरे कर्कशासि।
द्राक्षे द्रस्यन्ति के त्वाममृत! मृतमसि क्षीर! नीरं रसस्ते।
माकन्द! क्रन्द कान्ताधर! धर न तुलां गच्छ यच्छत्ति भावं
यावच्छृंगारसारं शुभमिव जयदेवस्य वैदग्ध्यवाच: ॥3॥[1]

अनुवाद- अरे माध्वीक (द्राक्षासव)! तुम्हारा चिन्तन ठीक नहीं है। हे शर्करे (शक्कर)! तुम अति कर्कशा हो। हे द्राक्षे! (अंगूर) तुम्हें कौन देखेगा। हे अमृत! तुम तो मृत तुल्य हो। हे दुग्ध! तुम्हारा स्वाद तो जल के समान है। हे माकन्द (पके आम)! तुम अब क्रन्दन करो। हे कान्ता के अधर! तुम अब पाताल चले जाओ, जब तक श्रृंगार के सार सर्वस्व शुभमय कवि जयदेव की विदग्धतापूर्ण वाणी है, तुम्हारा कोई काम नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अथ हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर इति शुकोक्तप्रायत्वात् एतच्छ्रवणकीर्त्तनस्मरणानुमोदनप्रभावमाह]- इह (मर्त्त्यलोके) यावत् जयदेवस्य वचांसि (पदावली) विष्वक् (सर्वत:) श्रृंगार-सारस्वतं (श्रृंगार-रस-सन्दर्भीयं भावं) यच्छन्ति (ददति) तावत् हे माध्वीक (मधो) भवत: चिन्ता साध्वी न भवति (मधुरत्वेऽपि त्वयि मादकत्वादित्यर्थ:); हे शर्करे त्वं कर्करा (कंकरवत् कठिना) असि (कंकरवत् प्रतीय से इतिभाव:; मादकत्वाभावेऽपि तव कठिनत्वादित्यर्थ:); हे द्राक्षे के त्वां द्रक्ष्यन्ति (कोमलत्वेऽपि निन्द्यदेशोर्वत्वादित्यर्थ:), हे अमृत त्वं मृतम असि (मरणान्तरं सुरलोके-प्राप्यत्वादित्यर्थ:); हे क्षीर ते रस: नीरं (नीरवतृ, आवर्त्तनाद्यपेक्षत्वात्र), हे माकन्द (चूत) त्वं क्रन्द (रुदिहि; त्वगष्ट्यादिहेयांशसाहित्यात्); हे कान्ताधर (अतिलोभनीय-प्रियाधर), त्वं धरणितलं (पातालम असुरालयं) गच्छ (अधोदातृनामत्वात् तवात्र स्थितिरपि न युक्तेत्यर्थ:; श्रीजयदेव-वर्णित-मधुराख्यभक्ति-रसास्वादनिर्वृतजनास्त्वयि घृणामेव प्रदर्शयिष्यन्तीति भाव:) ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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