गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 512

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

Prev.png

बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव ने श्रीगीतगोविन्द काव्य की माधुर्य वैदग्धी का वर्णन किया है। सार रूप में काव्य उज्ज्वलतम श्रृंगार रस की मंगलमयी प्रस्तुति है, इसकी मधुरता की ऊँचाई इतनी अनुपमेय हो गयी है कि संसार की कोई भी मधुर वस्तु इसके सामने फीकी पड़ गई है। कोई भी मधुर वस्तु सुधी वैष्णवों के लिए माधुर्य का परिवेषण नहीं कर सकती।

कवि जयदेव के विदग्धतापूर्ण वचन स्वयं ही शुभ हैं, सम्पूर्ण सार-के-सार हैं, जो सार है वह श्रृंगार रस है और श्रृंगार रस का सार गीतगोविन्द है। जो कुछ भी शुभ और मंगल है वह है श्रीकृष्ण और श्रीराधा का मंगल चरित। गीतगोविन्द जैसी रस माधुर्य वैचित्री कहीं भी तो नहीं है, जिसका भगवद्भक्त रसिकजन आस्वादन कर सकें। इन श्रृंगार सार सर्वस्व वचनावली के सामने सम्पूर्ण संसार का एकाग्रभूत माधुर्य धूमायित हो गया है। नीरस हो गया है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः