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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
चतुर्विंश: सन्दर्भ:
24. गीतम्
बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव ने श्रीगीतगोविन्द काव्य की माधुर्य वैदग्धी का वर्णन किया है। सार रूप में काव्य उज्ज्वलतम श्रृंगार रस की मंगलमयी प्रस्तुति है, इसकी मधुरता की ऊँचाई इतनी अनुपमेय हो गयी है कि संसार की कोई भी मधुर वस्तु इसके सामने फीकी पड़ गई है। कोई भी मधुर वस्तु सुधी वैष्णवों के लिए माधुर्य का परिवेषण नहीं कर सकती। कवि जयदेव के विदग्धतापूर्ण वचन स्वयं ही शुभ हैं, सम्पूर्ण सार-के-सार हैं, जो सार है वह श्रृंगार रस है और श्रृंगार रस का सार गीतगोविन्द है। जो कुछ भी शुभ और मंगल है वह है श्रीकृष्ण और श्रीराधा का मंगल चरित। गीतगोविन्द जैसी रस माधुर्य वैचित्री कहीं भी तो नहीं है, जिसका भगवद्भक्त रसिकजन आस्वादन कर सकें। इन श्रृंगार सार सर्वस्व वचनावली के सामने सम्पूर्ण संसार का एकाग्रभूत माधुर्य धूमायित हो गया है। नीरस हो गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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