जयदेव

जयदेव
जयदेव (अभिकल्पित चित्र)
पूरा नाम जयदेव
जन्म 1200 ईस्वी लगभग
जन्म भूमि ग्राम- केन्‍दुबिल्‍व, जिला- वीरभूमि, बंगाल
अभिभावक पिता- भोजदेव, माता- वामादेवी
पति/पत्नी पद्मावती
मुख्य रचनाएँ 'गीत गोविन्द' और 'रतिमञ्जरी'
भाषा संस्कृत
प्रसिद्धि ये लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी संत महीपति जो भक्ति विजय के रचयिता है उन्होंने श्रीमद्भागवतकार व्यास का अवतार जयदेव को माना है।

जयदेव (अंग्रेज़ी: Jayadeva लगभग 1200 ईस्वी) संस्कृत के महाकवि थे। ये लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे। वैष्णव भक्त और संत के रूप में जयदेव सम्मानित थे। जयदेव 'गीतगोविन्द' और 'रतिमंजरी' के रचयिता थे। श्रीमद्भागवत के बाद राधा-कृष्ण लीला की अद्‌भुत साहित्यिक रचना उनकी कृति ‘गीत गोविन्द’ को माना गया है। जयदेव संस्कृत कवियों में अंतिम कवि थे। इनकी सर्वोत्तम गीत रचना 'गीत गोविन्द' के नाम से संस्कृत भाषा में उपलब्ध हुई है। माना जाता है कि दिव्य रस के स्वरूप राधा-कृष्ण की रमणलीला का स्तवन कर जयदेव ने आत्मशांति की सिद्धि की। संत महीपति जो भक्ति विजय के रचयिता है, उन्होंने श्रीमद्भागवतकार व्यास का अवतार जयदेव को माना है।

परिचय

प्रसिद्ध भक्त-कवि जयदेव का जन्‍म पाँच सौ वर्ष पूर्व बंगाल के वीरभूमि जिले के अन्‍तर्गत केन्‍दुबिल्‍व नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम भोजदेव और माता का नाम वामादेवी था। ये भोजदेव कान्‍यकुब्‍ज से बंगाल में आये हुए पंच-ब्राह्मणों में भरद्वाज गोत्रज श्री हर्ष के वंशज थे। माता-पिता बाल्‍यकाल में ही जयदेव को अकेला छोड़कर चल बसे थे। ये भगवान का भजन करते हुए किसी प्रकार अपना निर्वाह करते थे। पूर्व-संस्‍कार बहुत अच्‍छे होने के कारण इन्‍होंने कष्‍ट में रहकर भी बहुत अच्‍छा विद्याभ्‍यास कर लिया था और सरल प्रेम के प्रभाव से भगवान श्रीकृष्ण की परम कृपा के अधिकारी हो गये थे।[1]

जयदेव की अलौकिक शक्ति

जयदेव के पिता को निरंजन नामक उसी गाँव के एक ब्राह्मण के कुछ रुपये देने थे। निरंजन ने जयदेव को संसार से उदासीन जानकर उनकी भगवद्भक्ति से अनुचित लाभ उठाने के विचार से किसी प्रकार उनके घर-द्वार हथियाने का निश्‍चय किया। उसने एक दस्‍तावेज बनाया और आकर जयदेव से कहा- "देख जयदेव ! मैं तेरे राधा-कृष्ण को और गोपी-कृष्‍ण को नहीं जानता या तो अभी मेरे रुपये ब्‍याज-समेत दे दे, नहीं तो इस दस्‍तावेज पर सही करके घर-द्वार पर मुझे अपना कब्‍जा कर लेने दे!"

जयदेव तो सर्वथा नि:स्‍पृह थे। उन्‍हें घर-द्वार में रत्तीभर भी ममता नहीं थी। उन्‍होंने कलम उठाकर उसी क्षण दस्‍तावेज पर हस्‍ताक्षर कर दिये। निरंजन कब्‍जा करने की तैयारी से आया ही था। उसने तुरंत घर पर कब्‍जा कर लिया। इतने में ही निरंजन की छोटी कन्‍या दौड़ती हुई अपने घर से आकर निरंजन से कहने लगी- "बाबा ! जल्‍दी चलो, घर में आग लग गयी; सब जल गया।" भक्त जयदेव वहीं थे। उनके मन में द्वेष-हिंसा का कहीं लेश भी नहीं था, निरंजन के घर में आग लगने की खबर सुनकर वे भी उसी क्षण दौड़े और जलती हुई लाल-लाल लपटों के अंदर उसके घर में घुस गये। जयदेव का घर में घुसना ही था कि अग्नि वैसे ही अदृश्‍य हो गयी, जैसे जागते ही सपना!

जयदेव की इस अलौकिक शक्ति को देखते ही निरंजन के नेत्रों में जल भर आया। अपनी अपवित्र करनी पर पछताता हुआ निरंजन जयदेव के चरणों में गिर पड़ा और दस्‍तावेज को फाड़कर कहने लगा- "देव ! मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने लोभवश थोड़े-से पैसों के लिये जान-बूझकर बेईमानी से तुम्‍हारा घर-द्वार छीन लिया है। आज तुम न होते तो मेरा तमाम घर खाक हो गया होता। धन्‍य हो तुम! आज मैंने भगवद्भक्त का प्रभाव जाना।" उसी दिन से निरंजन का हृदय शुद्ध हो गया और वह जयदेव के संग से लाभ उठाकर भगवान के भजन-कीर्तन में समय बिताने लगा।

जगन्नाथ यात्रा

जयदेव ने घर-द्वार छोड़कर पुरुषोत्तम क्षेत्र-पुरी जाने का विचार किया और अपने गाँव के पाराशर नामक ब्राह्मण को साथ लेकर वे पुरी की ओर चल पड़े। भगवान का भजन-कीर्तन करते, मग्‍न हुए जयदेव जी चलने लगे। एक दिन मार्ग में जयदेव जी को बहुत दूर तक कहीं जल नहीं मिला। बहुत जोर की गरमी पड़ रही थी, वे प्‍यास के मारे व्‍याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े। तब भक्त वांछाकल्‍पतरु हरि ने स्‍वयं गोपाल-बालक के वेष में पधारकर जयदेव को कपड़े से हवा की और जल तथा मधुर दूध पिलाया। तदनन्‍तर मार्ग बतलाकर उन्‍हें शीघ्र ही पुरी पहुँचा दिया। अवश्‍य ही भगवान को छद्म वेष में उस समय जयदेव जी और उनके साथी पराशर ने पहचाना नहीं था। पराशर को साथ लेकर वे भगवान श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करने चले। भगवान के दर्शन प्राप्‍त कर जयदेव जी बहुत प्रसन्न हुए। उनका हृदय आनन्‍द से भर गया! वे पुरुषोत्तम क्षेत्र पुरी में एक विरक्त संन्‍यासी की भाँति रहने लगे। उनका कोई नियत स्‍थान नहीं था। प्राय: वृक्ष के नीचे ही वे रहा करते और भिक्षा द्वारा क्षुधा-निवृत्ति करते। दिन-रात प्रभु का ध्‍यान, चिन्‍तन और गुणगान करना ही उनके जीवन का एकमात्र कार्य था।

गीतगोविन्द की रचना

गीत गोविन्द

जयदेव बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर 1116 ई. की तिथि है, अतः जयदेव ने इसी समय में 'गीतगोविन्द' की रचना की होगी। 'गीतगोविन्द' में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। ‘गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों (खण्डों) में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं। गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। अत्यन्त नैराश्य और निरवधि-वियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों - अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ इसमें वर्णन किया गया है।

अन्तकाल

अन्‍तकाल में श्री जयदेव जी अपनी पतिपरायणा पत्‍नी पद्मावती और भक्त पराशर, निरंजन आदि को साथ लेकर वृन्दावन चले गये और वहाँ भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीला देख-देखकर आनन्‍द लूटते रहे।

  • कहते हैं कि वृन्‍दावन में ही दम्‍पती देह त्‍यागकर नित्‍यनिकेतन गोलोक पधार गये।
  • किसी-किसी का कहना है कि जयदेव जी ने अपने ग्राम में शरीर छोड़ा था और उनके घर के पास ही उनका समाधि-मन्दिर बनाया गया।
  • श्री जयदेव जी के स्‍मरणार्थ प्रतिवर्ष माघ की संक्रान्ति पर केन्‍दुबिल्‍व गाँव में अब भी मेला लगता है, जिसमें प्राय: लाख से अधिक नर-नारी एकत्र होते हैं।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 554

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