गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 502

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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पद्यानुवाद
मोर पंख, चामर मवज मनसिज से सुन्दर अलकों से,
गिरे सुमन क्रीड़ा में, उनको गूँथो चुन पलकों से।
हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन! इतनी अनुनय मेरी,
पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन! लगा रहे क्यों देरी?

बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण को इस पद में 'मानद' शब्द से सम्बोधित करती हैं। मानद अर्थात् मान प्रदान करने वाले श्रीकृष्ण, अपनी प्रेयसियों को सम्मान देने वाले श्रीकृष्ण, 'मानद्यति' अर्थात् मानिनी रमणियों के मान को खण्डित करने वाले श्रीकृष्ण! आप अपनी शोभा से मयूरों के शिखण्डक अर्थात् मयूरपिच्छ को भी तिरस्कृत करने वाले हैं, मेरे कृष्ण-कुन्तल मनोभव के ध्वज-चमर के समान मनोहर एवं रुचिर हैं, रतिकाल में इनका बन्धन खुल गया है आप इनमें कुसुमों को सुसज्जित कर दें। आप ही कुसुम-गुम्फित केशपाश बनकर महकें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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