गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 503

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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सरस-घने जघने मम शम्बर-दारण-वारण-कन्दरे ।
मणि-रसना-वसनाभरणानि शुभाशय! वासय सुन्दरे॥
निज.... ॥7॥[1]

अनुवाद- हे शोभन-हृदय! मेरी कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी की कन्दरारूपी सरस, सुन्दर, सुभग, स्निग्ध, स्थूल जघनस्थली को मणि, करधनी, वस्त्र तथा आभूषणों से अलंकृत कीजिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि शुभाशय (सदाशय; शुद्धान्त:करणस्यैव क्रियासिद्धेस्तथा सम्बोधनं प्रयुक्तम) सरसघने (सरसं रागोद्दीपकं च तत् घनं निबिड़ं चेति तथोक्ते) शम्बरदारण-वारण-कन्दरे (शम्बरदारण: मदन: स एव वारणो हस्ती तस्य कन्दरे गह्वररूपे मदनावासस्थले इत्यर्थ:) [स्वभावत एव] सुन्दरे मम जघने मणिरसनावसनाभरणानि (मणिमयकाञ्चीं वसनम् आभरणानि च) वासय (यथास्थानं परिधापय) ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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