गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 501

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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मम रुचिरे चिकुरे कुरु मानद! मनसिज-ध्वज-चामरे।
रति-गलिते ललिते कुसुमानि शिखण्डि-शिखण्डक-डामरे॥
निज.... ॥6॥[1]

अनुवाद- हे मानद! रतिकाल में शिथिल हुए कामदेव की ध्वजा के चामर के समान तथा मयूर-पुच्छ से भी मनोहर मेरे मनोहर केशों में कुसुम सजा दीजिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि मानद (सम्मानप्रद) मानसज-ध्वज-चामरे (मानसजस्य कामस्य यो ध्वज: तस्य चामरे चामरतुल्ये) रतिगलिते (सम्भोगावेगेन विकीर्णे) शिखण्डि-शिखण्डक-डामरे (शिखण्डिनो मयूरस्य शिखण्डकस्य पुच्छस्य इव डामर: आटोपो यस्य तस्मिन् मानसजध्वजादावाटोपनादिकमपि तदुपयोग्यमेवेत्यर्थ:) [अतएव] रुचिरे (स्वभाव-सुन्दरे) ललिते (मनोहरे) मम चिकुरे (कुन्तले) कुसुमानि (पुष्पमाल्यं) कुरु (विनिवेशय) ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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