गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 448

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

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पद्यानुवाद
विपुल पलक भर ललक केलि रति दिखते अधिक अधीर।
मणि गण किरण समूह समुज्ज्वल भूषण सुभग शरीर॥

बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण को देख रही हैं कि उनका सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो रहा है, अद्भुत रोमांच से युक्त हो रहा है, रति-क्रीड़ा के लिए वे एक विचित्र आकुल प्रत्याशा से अधीर तो हो ही रहे थे, श्रीराधा-मिलन से तो रति-केलि-कला में उपयोगी चुम्बनादि क्रियाओं में व्यस्त होने के कारण और भी चंचल हो उठे। मणिमय भूषणों की कान्ति से देदीप्यमान होने के कारण उनका श्रीविग्रह अत्यधिक सुशोभित हो रहा था, जिन आभूषणों को उन्होंने धारण कर रखा था, उन आभूषणों में लगी हुई मणियों के किरणसमूह से सभी आभूषण चमचमा रहे थे ऐसे मणिमय अलंकारों से सुन्दर वपु वाले श्रीकृष्ण को श्रीराधा ने देखा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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