गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 449

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

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श्रीजयदेवकवि-भणित-विभव-द्विगुणीकृत-भूषणभारम्।
प्रणमत हृदि विनिधाय हरिं सुचिरं सुकृतोदय-सारम्॥
हरि.... ॥8॥[1]

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित विविध अलंकृत वाक्यरूप अलंकार से जिनके परिहित भूषण-राशि की शोभा द्विगुणित हो गयी है, हे रसिक भक्तों! कृत-पुण्यों के फलस्वरूप उन श्रीकृष्ण को हृदय में यत्न के साथ धारण कर आप उन्हें प्रणाम करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [भो: साधव:] श्रीजयदेव-भणित-विभव-द्विगुणीकृत-भूषण-भारं श्रीजयदेवस्य भणितमेव विभव: समृद्धि: तेन द्विगुणीकृत: नितरां परिवर्द्धित इत्यर्थ: भूषणस्य अलंकारस्य भार: गौरवं यत्र तादृशं) [यै: स्वयमलंकृतं ते अलंकारा: जयदेवस्य उपमादि-वाग्विलासै: द्विगुणीकृता इत्यर्थ:] [तथा] सुकृतोदयसारम् (सुकृतस्य पुण्यविशेषस्य य उदय आविर्भाव: फलमितियावत् तस्य सारभूतं) हरिं सुचिरं [यथा तथा] हृदि (चित्तमध्ये) विनिधाय (भक्तिभरेण स्थापयित्वा) प्रणमत ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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