गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 438

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

Prev.png
वराड़ीरागरुपकतालाभ्यां गीयते।

बालबोधिनी- एक सुकेशी हाथों में कंकण धारण कर, कानों में ढेर से पुष्प धारण कर लजाई हुई-सी हाथ में चामर लेकर वीजन करती हुई जब दयित के साथ विनोदन करती है, ऐसे समय में उस वरांगना के गीत को वराड़ी राग कहा गया है।

राधा-वदन-विलोकन-विकसित-विविध-विकार-विभंगम्।
जलनिधिमिव विधु-मण्डल-दर्शन-तरलित-तुंग-तरंगम् ॥1॥
हरिमेकरसं चिरमभिलषित-विलासम्।
सा ददर्श गुरुहर्ष-वशंवद वदनमन -निवासम् ॥ध्रुवपदम्॥[1]

अनुवाद- एकरस अर्थात् राधाविषयक अनुराग से युक्त तथा चिरकाल से श्रीराधा के साथ विलास की अभिलाषा रखने वाले श्रीराधा-वदन अवलोकन जन्य हर्ष से प्रफुल्लित, श्रीकृष्ण रोमाञ्च आदि विविध सात्त्विक मदन-विकाररूप भावों से युक्त हो रहे हैं। जिस प्रकार शशधर-मण्डल के दर्शन से समुद्र में उत्ताल-तर समुदाय तरंगायित हो उठता है, उसी प्रकार काम-रस के समुद्र-स्वरूप, भावभंगिमा द्वारा मदन-आसक्ति प्रकाशित करने वाले श्रीकृष्ण को श्रीराधा ने निकुञ्ज गृह में देखा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [एवं कुञ्ज प्रवेशमुक्त्वा श्रीकृष्णस्य तद्दर्शनानन्द-विकारान् वर्णयन् तस्या स्तद्दर्शनमाह]- सा (श्रीराधा) एकरसं (एकस्मिन्नेव आलम्बने श्रीराधारूपे रसो यस्य तं तस्या: सर्वोत्तमत्व-निश्चयेन तदेकपरमित्यर्थ:) [ननु अन्यांगनाभि: रममाणस्य कुतस्तत्परत्वमित्यत आह]- चिरं (बहुकालं) अभिलषित-विलासं (पूर्वोक्तरूपेण अभिलषित: आकाङि्क्षत: तया सह विलासो येन तम्) [अतस्तत्प्रसादावलोकनात्] गुरुहर्षवशंवद-वदनं (गुरुहर्षस्य वशंवदम् आयत्तं वदनं मुखं यत्र तादृशं हर्षेण स्मेराननमित्यर्थ:) [अतएव] अनंगविकाशं (अनंगस्य कामस्य विकाश: यत्र तादृशं) [तदेकनिष्ठत्वं दृष्टास्तेन स्पष्टयति]- राधावदनविलोकन-विकसित-विविध-विकार-विभंग (राधावदनविलोकनेनैव विकसिता: प्रकटिता: विविधविकारा: कामजा: हर्षस्तम्भादय: ते एव विभंगा: ऊर्म्मय: यत्र तादृशं) विधुमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य दर्शनेन तरलिता: चञ्चलीकृता: तुंगा: महान्त: तरंगा: यत्र तादृशं) जलनिधिं (समुद्रम्) इव हरिं ददर्श [अत्र श्रीकृष्णसमुद्रयो: विकारोर्म्म्योश्च साम्यम्] ॥1॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः