गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 437

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

एकविंश: सन्दर्भ:

21. गीतम्

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सा ससाध्वस-सानन्दं गोविन्दे लोललोचना।
सिञ्जान-मञ्जु-मञ्जीरं प्रतिवेश निवेशनम् ॥2॥
इति एकविंश: सन्दर्भ:।[1]

अनुवाद- श्रीराधा स्पृहायुक्त हृदय से अपने चञ्चल नेत्रों से श्रीगोविन्द का अवलोकन करती हुई लज्जा और हर्ष से मणिमय नूपुरों से मनोहर शब्द करती हुई निकुंज गृह में प्रवेश करने लगीं।

पद्यानुवाद
हुलस उठी राधा मधुवन में
अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर अपने जीवन-धन में।
चिर अभिलाष विलास भरे हरि, डूबे हर्ष मदन में,
सिहर उठी राधा अति मन में,
हुलस उठी राधा मधुवन में।

बालबोधिनी- सखी के द्वारा समझा-बुझाने पर श्रीराधा ने रतिक्रीड़ा के लिए उपयोगी लता-निकुंज में भीतर-भीतर कुछ काँपती हुई, कुछ उमगती हुई, इधर-उधर देखकर साभिलाष श्रीगोविन्द को निहारती हुई, चरण-नूपुरों को झंकारती हुई प्रवेश किया। प्रविष्ट होते हुए जब उन्होंने श्रीकृष्ण को देखा तो उन्हें ऐसा लगा कि वे मानो अंग-अंग में श्रीराधा को ही धारण कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- गोविन्दे (श्रीहरौ) लोल-लोचना (लोले सतृष्णे लोचने यस्या: सा) सा (राधा) शिञ्जानमञ्जुमञ्जीरं (शिञ्जान: शब्दायमान: मञ्जुमञ्जीर: मनोज्ञनूपुर: यत्र तद्यथा तथा) ससाध्वस-सानन्दं (ससाध्वसं ससम्भ्रमं सानन्दञ्च यथा तथा; प्रथम-समागमवत् ससाध्वसं विनत्यनन्तर-प्राप्त्या सानन्दमिति ज्ञेयम्) निवेशनं (कुञ्जगृहं) प्रविवेश ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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