गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 439

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

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पद्यानुवाद
राधा-वदन विलोकन से हैं विकसित विविधा विकार
जैसे विधु को जोह जलधि लहरों भर लाता ज्वार।

बालबोधिनी- निकुञ्ज गृह में श्रीराधा ने श्रीकृष्ण को अत्यधिक स्नेह के साथ देखा, देखा श्रीकृष्ण की अनेक विशेषताओं को, सारी विशेषताएँ श्रीराधा से ही सम्बन्धित। श्रीहरि समभावपूर्ण हैं, एकरस हैं, एक ही श्रृंगार रस अपनी प्रधानता बनाये हुए है, वे अनेक प्रकार के श्रृंगार रस के भावों से परिपूर्ण हैं। राधाविषयक अनुराग ही उनमें उछल रहा है, चिरकाल से श्रीराधा के साथ विलास करने की इच्छा संजोये हुए हैं, केलिकुंज में श्रीराधा का आना ही उनके जीवन का सर्वस्व है, उनके दर्शन से उनमें आनन्द का उद्रेक हो गया, अनेक प्रकार के कम्प-पुलकादि सात्त्विक विकार उदित हो उठे।

ऐसा लग रहा था जैसे श्रीराधा का मुखमण्डल कामदेव का निवास स्थान है, जिसे देखकर श्रीकृष्ण का मुखमण्डल हर्ष से दीप्त हो उठा है और अपनी मिलन-इच्छा को पूर्ण करना चाहता है, मानो श्रीराधा का मुख चन्द्रमण्डल हो, जिसे देखकर कृष्णरूपी समुद्र चंचल हो उठा हो और उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उच्छलित हो रही हों। श्रीराधा ने देखा श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही विविध काम-भावनाएँ प्रकाशित करने लगे हैं ॥1॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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