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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:
ऊनविंश: सन्दर्भ:
19. गीतम्
प्रीतिं वस्तनुतां हरि: कुवलयापीडेन सार्धं रणे अनुवाद- वे भगवान श्रीहरि सम्पूर्ण जगत का आनन्द वद्धर्न करें जिन्हें कुवलयापीड़ हाथी के उत्तुंग कुम्भ को देखकर श्रीराधा के पीन पयोधरों का स्मरण हो आया, जो युद्धकाल में उसके स्पर्श मात्र से अनंगरसावेश के कारण स्वेदपूर्ण हो पड़ा, पुन: जिनके नयन युगल निमीलित हो गये, जिसे कंसपक्षीय जीत गये, जीत गये (हम जीत गये) और अन्तत: उसको मार देने पर कृष्णपक्ष जीत गये, जीत गये इस प्रकार का व्यामोहयुक्त आनन्दसूचक महाकोलाहल हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [एवं स्वप्रिया-गुण कीर्त्तनावेशान्महासप्रट-स्थानानुभूत-तत्स्पर्श-सुख-स्मरण-परवशं श्रीकृष्णं वर्णयन् भक्तानाशास्ते]- [य: हरि:] राधा-पीन-पयोधर-स्मरणकृत-कुम्भेन (राधाया: पीनयो: पयोधरयो: स्मरणकृते) सादृश्येन संस्कारोद्र-बोधकतया स्मारकौ कुम्भौ यस्य तादृशेन) कुवलयापीड़ेन (तदाख्येन कंसहस्तिना) सार्द्धं (सह) रणे (युद्धे) सम्भेदवान् (आसंगवान्) [कुवलयापीड़स्य कुम्भस्पर्शेन राधास्तनस्पर्श-स्मृतिवशात्र सात्त्विक-भाववान् सन् इति भाव:] [तथा च] यत्र (सम्भेदे) [तत्स्पर्शसुखेन सात्त्विकोदयात्] क्षणं (क्षणं व्याप्य) [कृष्णे] स्विद्यति (कान्ताकुचयुगस्मरणात् सात्त्विकभावोदयेन स्वेदं मुञ्चति सति) [तथा] मीलति (आवेशभरात् नेत्रे संकोचयति सति) [कंसस्य कंसपक्षीय-जनसमूहस्य अस्माभि: जितं जितमिति व्यामोह-कोलाहल: अलमभूत्] अथ [तेन श्रीकृष्णेन] तत्क्षणात् द्विपे (हस्तिनि कुवलयापीड़े) क्षिप्ते (हत्वा दूरं प्रक्षिप्ते सति) कंसस्य (कंसपक्षीयस्य जनसमूहस्य) [अनेन] जितं जितमिति व्यामोह-कोलाहल: (व्यामोहेन शोकज-पीड़या य: कोलाहल: कलरव:) अलमभूत् (प्रादुरासीत्) स: (तद्विध:) हरि: व: (युष्माकं) प्रीतिं (आनन्दं) अनुताम् (विस्तारयतु); [पूर्वत्र व्यामोह: आनन्देन, उत्तरत् तु शोकेनेति ज्ञेयम्]। [अतएव सर्गो यं श्रीराधास्मरण-विकार-वर्णने मुग्धो मनोहरो माधवो यत्र स इति दशम:] ॥7॥
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सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |