गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 394

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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अनुवाद- हे तन्वि! आश्चर्य है, धरणि तल में अवस्थिता होकर भी तुम स्वर्गस्था विद्याधरियों के समान प्रतीत हो रही हो, तुम्हारे नयन सिन्धु मदालसा के मद से अलस हो रहे हैं। तुम्हारा वदन विवुध-रमणी इन्दु सन्दीपनी के समान है। तुम्हारा गमन देववनिता मनोरमा के समान मनोहर है, तुम्हारे उरुद्वयने सुरयोषिता रम्भा को भी पराजित कर दिया है। तुम्हारा रति-कौशल स्वर्गस्था कलावती के समान विविध कौशलयुक्ता है और तुम्हारे भ्रूयुगल चित्रलेखा के समान मनोहारी एवं विचित्र हैं।

बालबोधिनी- हे तन्वि राधिके! यद्यपि तुम इस पृथ्वी पर अवस्थित हो, फिर भी ऐसा लगता है जैसा समस्त देवस्त्रियों का समूह तुम्हारे भीतर निवास कर रहा है। तुम्हारी आँखें सौभाग्यमद से अलसायी हुई हैं कि अब तो प्रिय तुम्हारे चरणों में हैं। इस प्रकार मदजनित हर्ष के कारण मेरी अंगना होकर भी तुमने स्वर्ग की अप्सरा मदालसा को अपने नेत्रों में धारण किया है। तुम्हारा मुखमण्डल विबुधरमणी इन्दुमती का आवास है, जहाँ चन्द्रमा से भी अधिक आवश्यकता है। तुम्हें देखकर चन्द्रमा के मन में ईर्ष्या उत्पन्ना होती है, क्योंकि उसमें इतनी शक्ति कहाँ है? तुम्हारी गति जन-जन के मन को आट्टादित करने वाली है। अतएव तुममें मनोरमा नामक अप्सरा का निवास है। तुम्हारी जाँघ कदली वृक्ष को भी अनादृत कर रही है, जहाँ मानों रम्भा का निवास है। तुम्हारी गति हाव, भाव, विलास किलकिञ्चित्र आदि कलाओं से युक्त है। अतएव तुममें कलावती नामक अप्सरा का निवास है। तुम्हारे भू्रयुगल मनोहर चित्र चना के समान हैं। वहाँ लगता है कि तुम पृथ्वी पर रहती हुई भी इस पृथ्वी छन्द में उतरकर देवताओं के यौवन का वितान बनी हुई हो, तुम्हारा यौवन दिव्य हो।

प्रस्तुत श्लोक में पृथ्वी छन्द तथा कल्पितोपमालंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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