गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 369

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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सत्यमेवासि यदि सुदति मयि कोपिनी देहि खरनयनशरघातम्।
घटय भुजबन्धनं जनय रदखण्डनं येन वा भवति सुखजातम्॥
प्रिये.... ॥2॥[1]

पद्यानुवाद
अगर रोष है, खर-नखर वाण छेदो
भुजपाश बाँधो, अमार दन्त भेदो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि सुदति (प्रसन्नावदने) यदि [त्वदेकजीवने] मयि सत्यमेव कोपिनी (क्रुद्धा) असि, [तदा] खरनयन-शरघातं (खरै: तीक्ष्णै: नयन-शरै: घातं प्रहारं) देहि (कुरु इत्यर्थ:), [एतेनापि यदि न तुष्यसि] भुजबन्धनं (भुजाभ्यां बन्धनं) घटय (विधेहि); [तेनापि असन्तोषश्चेत] रदखण्डनं (रदै: दन्तै: खण्डनं दंशनं) जनय (कुरु); [किं बहुना] येन वा (अन्येन) [तव] सुखजातं (सुखसमूह:) भवति [तत्कुरु इति शेष:] [अत्र गूढ़ोऽभिप्राय: स्वीयेऽपराधिनि दण्डएवोचितो नोपेक्षा कर्त्तव्या इति] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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