गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 368

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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अनुवाद हे प्रिये! हे सुन्दर स्वभावमयी राधे! मेरे प्रति इस प्रकार अकारण मान का परिहार करो, मदनानल मेरे हृदय को दग्ध कर रहा है, मुझे अपने मुखकमल का मधुपान करने दो, यदि तुम मुझसे कुछ भी बात करोगी तो तुम्हारी दशन पंक्ति की किरणों की ज्योति से मेरा भय रूपी घोर अंधकार दूर हो जायेगा, तुम्हारा मुखचन्द्र मेरे नयन-चकोर को तुम्हारी अधर-सुधा का पान करने के लिए अभिलाषी बना दे।

बालबोधिनी- श्रीकृष्ण श्रीराधा जी से कहते हैं हे प्रिये! तुम्हारा स्वभाव तो अति शोभन है। तुमने मेरे विषय में जो अकारण मान ठान लिया है, वह तो उचित नहीं है। जबसे तुमने मान किया है, तबसे काम दाह मुझे जलाये जा रहा है, मान का कोई कारण भी तो नहीं है, व्यर्थ ही परस्त्री-रमण की शंका कर रही हो तुम्हारे ही आश्रय से काम मुझे व्यथित कर रहा है। अपने मुखकमल का मुझे मधुपान कराओ, जिससे मेरा अन्तर्दाह प्रशमित हो जायेगा यह अति दुर्लभ है। इसे जाने दो, पर कुछ बोलो तो सही, अनुकूल अथवा प्रतिकूल, पर कुछ तो कहो- जब तुम कुछ कहोगी तो तुम्हारा मुखकमल विलसित विकसित होगा। इससे तुम्हारे दन्त की कान्ति-कौमुदी प्रकाशित होगी और इससे मेरे अन्त:करण में निहित भय-तिमिर विनष्ट हो जायेगा। राधे, तुम्हारे चन्द्रवदन से ऐसी अधर सुधा छलक रही है कि मेरे नयन चकोर तो इस आसव का पान करना चाहते हैं। प्रिये, चारुचरित्रे! तुम ही तो मेरे नयन-चकोर की जीवन-स्वरूपा हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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