गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 367

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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देशवराडीरागाष्टतालीतालाभ्यां गीयते।
अनुवाद गीतगोविन्द काव्य का यह उन्नीसवाँ प्रबन्ध देशवराडी राग तथा अष्टताली ताल में गाया जाता है।


वदसि यदि किञ्चिदपि दन्त-रुचि-कौमुदी
हरति दर-तिमिरमति धोरम्।
स्फुरदधर-शीधवे तव वदन-चन्द्रमा
रचयतु लोचन चकोरम् ॥1॥
प्रिये! चारुशीले!
मुञ्च मयि मानमनिदानम्।
सपदि मदनानलो दहति मम मानसं
देहि मुखकमल-मधुपानम् ॥ध्रुवपदम्॥[1]

पद्यानुवाद
प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा,
अमार-पन-रस दे हरो ताप सारा।
तनिक बोल बोलो, खिले दन्त ज्योत्स्ना,
हरो घोर तम-मय, भरो प्राण-कोना,
सुधा सम अमार मधु, वदन चन्द्रमा से
लगे लोल लोचन, चकोरक बने से
प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा,
अधर पद्म-रस दे हरो ताप सारा।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि चारुशीले (मनोज्ञस्वभावे) प्रिये (प्रेयसि) मयि अनिदानं (अकारणं) मानं (कोपं) मुञ्च (चारुशीलायास्ते अकारणमानोऽयुक्त इति भाव:)। मदनानल: (कामाग्नि:) सपदि (झटिति; तव मान-समकालमेव इत्यर्थ:), मम मानसं दहति; [तस्मात्] मुखकमल-मधुपानं (मुखमेव कमलं पद्मं तस्य मधु तस्य पानं) देहि (अन्तर्दाहस्य पानेनैव शान्ति:, अतो मां मुखपद्ममधु पायय इत्यर्थ:) (ध्रु)॥

    [दुरापमिदं दूरेऽस्तु]- यदि किञ्चिदपि वदसि तदा [तव] दन्तरुचिकौमुदी (दन्तानां रुचि: दीप्तिरेव कौमुदी ज्योत्स्ना) [मम] अतिघोरं (भयजनकं) दरतिमिरं (प्रगाढ़ं हृदय-निहितं तिमिरम् अन्धकारं) हरति। [किञ्च] तव वदनचन्द्रमा: (मुखचन्द्र:) स्फुरदधर-सीधवे (स्फुरत: उच्छलितस्य अधरस्य सीधवे अमृताय अमृतपानार्थमित्यर्थ:) [मम] लोचनचकोरं (लोचनं नेत्रमेव चकोरस्तं) रोचयति (साभिलाषं करोति) [नयनस्य चकोरत्वेन त्वदेकजीवनत्वमुक्तम्] ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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