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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:
बालबोधिनी- प्रिय सखी ने कोप दूर करने के लिए श्रीराधा को विविध प्रकार से समझाया। पर किशोरी जी का क्रोधावेश क्षीण नहीं हुआ, इतने में दिन भी ढलने लगा, विरह-ताप से दीर्घश्वास चल रहे हैं, मुख-कमल अतिशय मलिन हो रहा है, सखी उसके मान प्रशमन करने के सारे उपाय कर शान्त हो चुकी है, स्वयं ने भी अभी-अभी श्रीकृष्ण की उपेक्षा की है, फिर उनको पाने की अभिलाषा कैसे करे। अत: बार-बार अत्यन्त लज्जा के साथ सखी की ओर देख रही है। प्रेम की उद्विग्नता है, उदासी छाई है। इसी प्रदोष काल में श्रीकृष्ण ने विचार किया कि श्रीराधा हृदय में पछता रही होंगी। चलो, उसने जो आरोप लगाया है, उसे स्वीकार कर उसी की बात रखकर क्षमा याचना कर लूँ। अत: वे सुवन्दना श्रीराधा के समीप आकर आनन्द से प्रफुल्लित होकर प्रणय से गद्गद स्वर में निवेदन करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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