गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 366

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

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बालबोधिनी- प्रिय सखी ने कोप दूर करने के लिए श्रीराधा को विविध प्रकार से समझाया। पर किशोरी जी का क्रोधावेश क्षीण नहीं हुआ, इतने में दिन भी ढलने लगा, विरह-ताप से दीर्घश्वास चल रहे हैं, मुख-कमल अतिशय मलिन हो रहा है, सखी उसके मान प्रशमन करने के सारे उपाय कर शान्त हो चुकी है, स्वयं ने भी अभी-अभी श्रीकृष्ण की उपेक्षा की है, फिर उनको पाने की अभिलाषा कैसे करे।

अत: बार-बार अत्यन्त लज्जा के साथ सखी की ओर देख रही है। प्रेम की उद्विग्नता है, उदासी छाई है। इसी प्रदोष काल में श्रीकृष्ण ने विचार किया कि श्रीराधा हृदय में पछता रही होंगी। चलो, उसने जो आरोप लगाया है, उसे स्वीकार कर उसी की बात रखकर क्षमा याचना कर लूँ। अत: वे सुवन्दना श्रीराधा के समीप आकर आनन्द से प्रफुल्लित होकर प्रणय से गद्गद स्वर में निवेदन करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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