गीता रहस्य -तिलक पृ. 492

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पन्द्रहवां प्रकरण

इस वाक्य में, और “किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्माऽयं लोकः’’इस बृहदारण्यकोपनिषद के संन्यासविषयक वचन में[1] बहुत कुछ समानता है। स्वयं बाइबल के ही इन वाक्यों से यह सिद्ध होता है, कि जैन और बौद्ध धर्मों के सदृश ईसाई धर्म भी आरंभ में संन्यास-प्रधान अर्थात् संसार को त्याग देने का उपदेश देने वाला था; और, ईसाई धर्म के इतिहास को देखने से भी यही मालूम होता है[2] कि ईसा उपदेशानुसार ही पहले ईसाई धर्मोपदेशक वैराग्‍य से रहा करते थे- “ईसा के भक्तों को द्रव्य-संञ्चय न करके रहना चाहिये’’[3]। ईसाई धर्मोपदेशकों ने तथा ईसा के भक्तों में गृहस्थ-धर्म से संसार में रहने की जो रीति पाई जाती है, यह बहुत दिनों के बाद होने वाली सुधारों का फल है- वह मूल ईसाईधर्म का स्वरूप नहीं है। वर्तमान समय में भी शौपेनहर सरीखे विद्वान यही प्रतिपादन करते हैं, कि संसार दुःखमय होने के कारण त्याज्य है; और, पहले यह बतलाया जा चुका है कि ग्रीस देश में प्राचीन काल में यह प्रश्‍न उपस्थित हुआ था, कि तत्त्वविचार में ही अपने जीवन को व्यतीत कर देना श्रेष्ठ है, या लोकहित के लिये राजकीय मामलों में प्रयत्न करते रहना श्रेष्ठ है।

सारांश यह है कि, पश्चिमी लोगों का यह कर्मत्याग-पक्ष और इस लोगों का संन्यासमार्ग कई अंशों में एक ही है और इन मार्गों का समर्थन करने की पूर्वी और पश्चिमी पद्धति भी एक ही सी है। परन्तु आधुनिक पश्चिमी पंडित कर्मत्याग की अपेक्षा कर्ममार्ग की श्रेष्ठता के जो कारण बतलाते हैं, वे गीता में दिये गये प्रवृतिमार्ग के प्रतिपादन से भिन्न हैं; इसलिये अब इन दोनों के भेद को भी यहाँ पर अवश्‍य बतलाना चाहिये। पश्चिमी आधिभौतिक कर्ममार्गियों का कहना है, कि संसार के सब मनुष्यों का अथवा अधिकांश लोगों का अधिक सुख-अर्थात् ऐहिक सुख- ही इस जगत् में परम साध्य है, अतएव सब लोगों के सुख के लिये प्रयत्न करते हुए उसी सुख में स्वयं मग्‍न हो जाना ही प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्‍य है; और, इसकी पुष्टि के लिये उनमें से अधिकांश पंडित यह प्रतिपादन भी करते हैं कि संसार में दुःख की अपेक्षा सुख ही अधिक है। इस दृष्टि से देखने पर यही कहना पड़ता है, कि पश्चिमी कर्ममार्गीय लोग “सुख-प्राप्ति की आशा से सांसारिक कर्म करने वाले’’ होते हैं और पश्चिमी कर्मत्‍याग मार्गीय लोग “संसार से ऊबे हुए’’ होते है; तथा कदाचित इसी कारण से उनको क्रमानुसार ‘आशावादी’ और ‘निराशावादी’ कहते हैं[4]। परन्तु भगवद्गीता में जिन दो निष्ठाओं का वर्णन है वे इनसे भिन्न हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृ. 4.4.22
  2. See Paulsen’s System of Ethics] (eng. Trans.) BookI. Chap. 2 and 3; esp. pp. 89-97.” The new (Christian) converts seemed to renounce their family and country… their gloomy and anstere aspect, their abhorrence of the common business and pleasures of life, and their frequent preditions of some danger which would arise from the new sect.” Historians’ Histroy of the Word, Vol. 4. p. 318, जर्मन कवि गैटे ने अपने थ्ंनेज (फास्ट) नामक काव्य में यह लिखा है- “ Thou shait renounce! That is the eternal song which rings in everyone’s ears; which, our whole life-long very hour is hoarsely singing to us. “ (Faust, Part 1 2 1195-1198). मूल ईसाई धर्म के संन्यास-प्रधान होने के विषय में कितने ही अन्य आधार और प्रमाण दिये जा सकते हैं।
  3. मेथ्यू. 10.9-15
  4. जेम्स सली (James Sulli) ने अपने Pessimism नामक ग्रंथ में Optimist और Pessimist नामक दो पंथों का वर्णन किया है। इनमें से Optimist का अर्थ ’उत्साही, आनन्दित ’ और Pessimst का अर्थ ’संसार से त्रस्त’ और सांख्य’ के समानार्थक नहीं है (देखो पृष्ठ 304)। ’’दुःख निवारणेच्छुक’’ नामक जो एक तीसरा पंथ है और जिसका वर्णन आगे किया गया है, उसका सली ने Meliorism नाम रखा है।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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