गीता रहस्य -तिलक पृ. 491

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पन्द्रहवां प्रकरण


ईसा ने यह कहा है सही, कि “तू अपने पड़ोसी पर अपने ही समान प्यार कर’’[1]; और, पाल का भी कथन है सही, “तू जो कुछ खाता, पीता या करता है वह सब ईश्‍वर के लिये कर’’[2]; ये दोनों उपदेश ठीक उसी तरह के हैं जैसा कि गीता में आत्मौपम्य-बुद्धि से र्इश्‍वरार्पणपूर्वक कर्म करने को कहा गया है[3]। परन्तु केवल इतने ही से यह सिद्ध नहीं होता कि ईसाईधर्म गीताधर्म के समान प्रवृति-प्रधान है; क्योंकि ईसाईधर्म में भी अंतिम साध्य यही है कि मनुष्य को अमृतत्त्व मिले तथा वह मुक्त हो जावे, और उसमें यह भी प्रतिपादन किया गया है कि यह स्थिति घर-द्वार त्यागे बिना प्राप्त नहीं हो सकती, अतएव ईसामसीह के मूलधर्म को संन्यास-प्रधान ही कहना चाहिये। स्वयं ईसामसीह अंत तक अविवाहित रहे। एक समय एक आदमी ने उनसे प्रश्‍न किया कि “मां-बाप तथा पड़ोसियों पर प्यार करने के धर्म का मैं अब तक पालन करता चला आया हूं, अब मुझे यह बतलाओ कि अमृतत्त्व मिलने में क्या कसर है?’’ तब तो ईसा ने साफ उत्तर दिया है कि “तू अपने घरद्वार को बेचकर किसी गरीब को दे डाल और मेरा भक्त बन’’[4]; और वे तुरन्त अपने शिष्यों की ओर देख उनसे कहने लगे कि “सुई के छेद से ऊंट भले ही निकल जाये, परन्तु ईश्‍वर के राज्य में किसी धनवान का प्रवेश होना कठिन है।’’

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं देख पड़ती कि यह उपदेश, याज्ञवल्क्य के उस उपदेश की नक़ल है कि जो उन्होंने मैत्रेयी को किया था। वह उपदेश यह है- “अमृतत्त्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन’’[5] अर्थात द्रव्य से अमृतत्त्व मिलने की आशा नहीं है। गीता में कहा गया है कि अमृतत्त्व प्राप्त करने के लिये सांसारिक कर्मों को छोड़ने की आवश्‍यकता नहीं है, बल्कि उन्हें निष्काम बुद्धि से करते ही रहना चाहिये; परन्तु ऐसा उपदेश ईसा ने कहीं भी नहीं किया है। इसके विपरीत उन्होंने यही कहा है कि सांसारिक संपति और परमेश्‍वर के बीच चिरस्थायी विरोध है[6], इसलिये “मा-बाप, घर-द्वार, स्त्री-बच्चों और भाई-बहिन का, एवं स्वयं अपने जीवन का भी द्वेष कर के जो मनुष्य मेरे साथ नहीं रहता, वह मेरा भक्त कभी हो नहीं सकता’’[7]। ईसा के शिष्य पाल का भी यही स्पष्ट उपदेश है कि “स्त्रियों का स्पर्श तक भी न करना सर्वोत्तम पक्ष है’’[8]। इसी प्रकार हम पहले ही कह आये हैं कि ईसा के मुंह के निकले हुए “हमारी जन्मदात्री[9]माता हमारी कौन होती है? हमारे आसपास के ईश्‍वरभक्त ही हमारे मा-बाप और बन्धु है’’[10]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मेथ्यू. 19.19
  2. 1 कारिं. 10.31
  3. गी.6.29 और 9.27
  4. मेथ्यू. 19.16-30 और मार्क 10. 21-31
  5. ब. 2.4.2
  6. मेथ्यू.6.24
  7. ल्यूक. 14.26-33
  8. 1. कारि. 7.1
  9. यह तो संन्यास-मार्गियों का हमेशा ही का उपदेश है। शंकराचार्य का “का ते कान्ता कस्ते पुत्रः’’ यह श्‍लोक प्रसिद्ध ही है; और, अश्वघोष के बुद्धचरित्र ( 6.45 ) में यह वर्णन पाया जाता है कि बुद्ध के मुख से “क्‍काहं मातुः क सा मम’’ ऐसा उद्धार निकला था।
  10. मेथ्यू. 12.46.50

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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