गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पन्द्रहवां प्रकरण
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं देख पड़ती कि यह उपदेश, याज्ञवल्क्य के उस उपदेश की नक़ल है कि जो उन्होंने मैत्रेयी को किया था। वह उपदेश यह है- “अमृतत्त्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन’’[5] अर्थात द्रव्य से अमृतत्त्व मिलने की आशा नहीं है। गीता में कहा गया है कि अमृतत्त्व प्राप्त करने के लिये सांसारिक कर्मों को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्हें निष्काम बुद्धि से करते ही रहना चाहिये; परन्तु ऐसा उपदेश ईसा ने कहीं भी नहीं किया है। इसके विपरीत उन्होंने यही कहा है कि सांसारिक संपति और परमेश्वर के बीच चिरस्थायी विरोध है[6], इसलिये “मा-बाप, घर-द्वार, स्त्री-बच्चों और भाई-बहिन का, एवं स्वयं अपने जीवन का भी द्वेष कर के जो मनुष्य मेरे साथ नहीं रहता, वह मेरा भक्त कभी हो नहीं सकता’’[7]। ईसा के शिष्य पाल का भी यही स्पष्ट उपदेश है कि “स्त्रियों का स्पर्श तक भी न करना सर्वोत्तम पक्ष है’’[8]। इसी प्रकार हम पहले ही कह आये हैं कि ईसा के मुंह के निकले हुए “हमारी जन्मदात्री[9]माता हमारी कौन होती है? हमारे आसपास के ईश्वरभक्त ही हमारे मा-बाप और बन्धु है’’[10]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मेथ्यू. 19.19
- ↑ 1 कारिं. 10.31
- ↑ गी.6.29 और 9.27
- ↑ मेथ्यू. 19.16-30 और मार्क 10. 21-31
- ↑ ब. 2.4.2
- ↑ मेथ्यू.6.24
- ↑ ल्यूक. 14.26-33
- ↑ 1. कारि. 7.1
- ↑ यह तो संन्यास-मार्गियों का हमेशा ही का उपदेश है। शंकराचार्य का “का ते कान्ता कस्ते पुत्रः’’ यह श्लोक प्रसिद्ध ही है; और, अश्वघोष के बुद्धचरित्र ( 6.45 ) में यह वर्णन पाया जाता है कि बुद्ध के मुख से “क्काहं मातुः क सा मम’’ ऐसा उद्धार निकला था।
- ↑ मेथ्यू. 12.46.50
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